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________________ आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम् (अर्थ) एक उच्छवास में सतरह बार मरकर(तुम्हारी) उत्पत्ति होती है। उस निश्वास में अठारह बार वह तुम्हारा कुल है। एवमणंतं कालं, दुक्खं सहिऊण तत्थ तं जीव!। ववहाररासिमझे, अह पत्तो कम्मजोगेण॥४१॥ (अर्थ) हे जीव! तुम वहाँ इस प्रकार अनंतकाल तक दुःख सहन करके अब कर्मयोग से व्यवहार राशी को प्राप्त हुए हो। समभंगपत्तकिसलयअंकुरसेवालकुं(क)दपमुहेसुं। बायरकम्मुदएणं, बायरणंतेसु उप्पन्नो॥४२॥ (अर्थ) जिसको काटने से समान भंग हो ऐसे, पत्ते, कोमल लताएं, अंकुर, शैवाल तथा कंद प्रमुखों में बादर कर्म के उदय से अनंतों में बादर उत्पन्न होते हैं। साहारणकम्मुदए, जीवा साहारणेसु गच्छंति। ते पुण हुँति अणंतो(ता), इक्के इक्के वि देहम्मि॥४३॥ (अर्थ) साधारण कर्मोदय में जीव साधारण(वनस्पतिकाय) में जाते हैं। वे फिर एक-एक देह में अनंत होते हैं। मूढेण तए तेसुं, वि अणंतकालं अणंतकाएसु। जं सहियं गुरु दुक्खं, ता जाणइ केवली जइ तं॥४४॥ (अर्थ) मूर्ख ऐसे तेरे द्वारा उसमें अनंत कायों में अनंत काल तक जो बडा दुःख सहन किया वह केवल केवली(सर्वज्ञ) जानते हैं। भमिऊण चिरं चउदस, जोणीलक्खेस तेस रे जीव!। पत्तेयकम्मउदए, पत्तेयवणस्सए जाओ॥४५॥ (अर्थ) हे जीव! बहुत समय तक चौदह लाख योनियों में भ्रमण करके(तू) प्रत्येककर्मोदय में प्रत्येक वनस्पति में उत्पन्न हुआ। एगो एगो जीवो, एगे एगे तणुम्मि जेसि भवे। ते अंबं(ब)जंबुजंबीरमाइणो हुंति पत्तेया॥४६॥ (अर्थ) एक एक जीव जिनके एक एक शरीर में होते हैं, वे आम, जामुन, नींबू आदि प्रत्येक होते हैं। जोयणसहस्समाणं, देहं उक्कोसओ हवइ तेसिं। दसलक्खा जोणीणं, आउं दसवाससहस्साइं॥४७॥ (अर्थ) उनका देह उत्कृष्ट से हजार योजन होता है, ऐसे दस लाख योनियों की आयु दस हजार वर्ष की होती है। कालमसंखं तत्थ वि, दक्खं सहिऊण छेयणाईयं। पत्तो वायजिएसुं, घणतणुउब्भामगाईसु॥४८॥ १. प्रत्येक वनस्पती।
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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