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________________ श्रुतदीप-१ को वि जहा अन्नेसिं, सुद्धं मग्गं परूवमाणो वि। जइ वच्चसि उम्मग्गे, कुगईए पडसि ता पयडं॥३२॥ (अर्थ) जैसे दूसरों को शुद्ध मार्ग बतानेवाला कोई भी यदि(स्वयं) गलत मार्ग पर जाता है तो वह कुगति में गिरता है यह स्पष्ट ही है। सो पुण मग्गो दुविहो, जिणेहिं भणिओ अणंतनाणीहिं। एगो सरलो अवरो, वंको जयणाइ गमणिज्जो॥३३॥ (अर्थ) अनंतज्ञानी जिनों के द्वारा कहा गया मार्ग फिर दो प्रकार का है- एक सरल तथा दूसरा वक्र(टेढा) वह प्रयत्न से जानना चाहिए। एगो पंचमहव्वयरूवो वरनाणदंसणचरित्तो। सम्मत्तमूलबारसगिहिवयरूवो तहा अवरो॥३४॥ (अर्थ) पहला पाँच महाव्रत रूपी श्रेष्ठ ज्ञान, श्रेष्ठ दर्शन, श्रेष्ठ चारित्रवाला है, दूसरा सम्यक्त्व मूल बारह गृहस्थ के व्रतरूप है। कह पुण एसो मग्गो, सुद्धो लद्धो चिरं भमंतेण। कत्थइ चउसु गइसु ता, वि हु का निसुण ता एया॥३५॥ (अर्थ) चारों गतियों में बहुत भ्रमण करते हुए उसमें से भी यह शुद्ध मार्ग तुम्हे कैसे मिला वह सुन। चउदसरज्जू लोगो, अदिस्समाणेहिं चम्मचक्खूहि। जीवेहिं अत्थि पुन्नो,(त्तो?) चुन्नेणं चुन्नकुंपि व्व॥३६॥ (अर्थ) चर्मचक्षु से न देखते हुए जीवों के द्वारा चौदह राजलोक चूर्ण से भरी हुई बोतल के समान भरा हुआ है। होइ निगोओ एगो, तेहि अणंतेहिं ते पुण असंखा। तेहिं पि असंखेहि, गोला तह ते वि गयसंखा॥३७॥ (अर्थ) अनंत(जीवों के द्वारा) एक निगोद होता है, वे(निगोद) भी असंख्य(होते हैं), उन असंख्य(निगोदों से) गोला(होता है), तथा वे(गोले) भी संख्येय(होते हैं)। आह कहं सुइमित्ते, ख(खि)त्ते लोए व(च) णंतया जीवा। जम्हा भणियमणंतं, अणंतभेयं जिणिंदेहि॥३८॥ (अर्थ) बताओ, सूई जितने जगह पर अनंत जीव कैसे? जैसे जिनों के द्वारा अनंत के अनंत भेद कहे गये हैं। आहारं नीहारं, समं कुणंता अईवसुहुमतणू। सद्दात्थ(हत्थे) वि अक्खलिया, निगोयजीवा सुए भणिया॥३९॥ (अर्थ) आहार और नीहार समान करते हुए अतिसूक्ष्म शरीर, शस्त्र से भी अबाधित निगोद जीव श्रुत में कहे गए हैं। एगम्मि वि ऊसासे, सतरस वारा मरित्तु उप्पत्ती। अट्ठारसमं वारं, तेसिम(निस)सीयं कुलं च तुम॥४०॥
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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