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________________ आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम् बहुए वि जणे अवरे, बोहिंता अप्पयं विणा जीवा । अंगारमद्दओ विव, पडंति घोरे दुहसमुद्दे॥२४॥ (अर्थ) बहुत से लोग आत्मा को बोध किए बिना दूसरों को बोध कराते हुए अंगारमर्दक की तरह घोर दुःखरूपी समुद्र में गिरते हैं। जेसिं कहेसि धम्मं, सुरेसु ते गामिणो तमायरियं। तं पुण अकुणंतोतं, कुगइ पाविहिसि रे पाव! ॥ २५॥ (अर्थ) जिनको धर्म बताते हो वे उसका पालन करके देवलोक में जायेंगे, उसी का पालन नहीं करता हुआ अरे पापी! तू गति को प्राप्त होगा। तत्थ गया य भवंतं, दिणंते ओहिणा नियस्संति। दिसि दिसि अवलोयंतं, मालापडियं व मज्जारं ॥२६॥ ४३ (अर्थ) और वहाँ गये हुए तुम्हें दिन के अंत में अवधिज्ञान से देखेंगे, चारों दिशाओं में अवलोकन करती हुई माले से गिरी हुई बिल्ली की तरह। को हं इहागओ कह, जाओ हं एरिसो कहं दुहिओ । इय तु झरंतस्स वि, होही नाणं न वा ताणं ॥ २७॥ (अर्थ) मैं कौन हूँ? यहाँ कैसे आया? कैसे उत्पन्न हुआ? इतना दुःखी क्यों हूँ? इस प्रकार स्मरण करता हुआ तेरा न ज्ञान होगा न बचानेवाला होगा। नयणेहिं कहं दीसइ?, धी! धी! रूवं विरूवमेयस्स । होहिसि इइ मूढाणं, तुम दुगुंछापयं तत्थ ॥२८॥ (अर्थ) इस प्रकार विरूप ऐसा रूप आँखों से कैसा दिखता है? धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! इस तरह वहाँ तू मूर्ख लोगों का घृणापात्र होगा। हा! पावफलं एअं, दट्ठूण वि कीरए पुणो कह तं?। एवं भवभीयाणं, वेरग्गपयं च विबुहाणं ॥ २९॥ (अर्थ) अरे! इस पापफल को देखकर तू कैसे कर्म को करता है? ऐसा विचार करते हुए संसार के भय से डरे हुए विद्वान् लोग वैराग्यपद को प्राप्त करते हैं। इह हरसि मणो जेसिं, किरियं करिऊण दव्वओ जइ वि तह वि सुरा संजाया, तुह चरियं ते मुणिस्संति॥३०॥ (अर्थ) यहाँ यदि तू द्रव्य से क्रिया करके जिनके मन का हरण करता है, फिर भी देव हुए ऐसे वे तेरा चारित्र जानेंगे। कुगईं पत्तो तत्तो, कित्तिं सुगइं पि लहसि नो एवं। भावेन कुणसि जइ पुण, ता दुन्नि वि पावसे अइरा ॥३१॥ (अर्थ) इस प्रकार कुगति को प्राप्त हुए तुम्हे कीर्ति और सुगति नहीं मिलेगी। यदि भाव से करते हो तो दोनों भी जल्दी ही प्राप्त करोगे।
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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