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________________ प्रज्ञाप्रकाशषत्रिंशिका २३ कृष्णस्य पक्षस्य निशाकरस्य क्षयं कला याति यथा तथैव। दिने दिने यौवनता जनस्य काऽऽशा मनुष्यस्य हि यौवनस्य?॥२१॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ) जिस तरह कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा हर दिन क्षीण होता है उसी तरह आदमी का यौवन हर दिन क्षीण होता है (पाठ-काशा) मनुष्य को यौवन की क्या आशा है? (बा) जिम अंधारे पखवाडे चंद्रमानो जिम वलीपण क्षय जाए सोलकलामाहेथी एक एक हीन थाए छे तिम दृष्टांते जाण। जो दिन दिनने विषे जोवन रूप नदीनो प्रवाह, वइ जाए छे जिम नरनूं कीसी आशा मनूंष्य तें निश्चे हजी जोवन माहे धरम करो॥२१॥ एधेत पुण्यात्प्रचुरं च पुण्यं एधेत पापात्प्रचुरं च पापम्। तस्मान्नरेणेह विचक्षणेन पुण्यं विधेयं सुखवर्धकं च॥२२॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ) पुण्य से पुण्य बढता है। पाप से पाप बढ़ता है। इसलिए विचक्षण आदमी को चाहिए कि वह सुख बढाने वाला पुण्य ही करे। (बा) वाधे पुन्य यथा कथी(थकी) प्रचूर वली पुन्य वाधे, पाप थकी वली प्रचूर पापामांहे पाप नीश्चे। तेणें कारणे पुरुषं पंडीत जननें तेण कारणे पुनं काहता]. वली ते कारणे करी पुन्यमां रचवू आदरवू सुखनो वधारणहार॥२२॥ पुण्येन रूपं किल चारुवाक्यं पुण्येन सर्वं सफलं च वाक्यम्। पुण्येन च स्यात् प्रतिपूर्णसौख्यं पुण्यं विनाऽर्तिस्तु पदे पदे च॥२३॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ) रूप पुण्य से ही मीलता है। सुंदर वाणी पुण्य का ही प्रभाव है। पुण्य हो तो ही आदमी का शब्द सफल होता है। पुण्य से ही प्रतिपूर्ण सुख मीलता है। पुण्य न हो तो हर डगर पर दुःख झेलना पडता है। (बा)पुन्ये के श. रुप पंचेंद्री पाटना मल पामे किल. प्रभावनाइ चा कधन रोइ. नं वार्या बोलवू पामें पुन्यें करी सघलुं सफल वचन होय निश्चे सीधांते का छे। पुन्थे करीने होय सघलां सुख नर मनुष्यनां अथवा वली देवता प्रमुखनां सुख पामें पुन्यं क[हतां], पन्ये विना आरत अथवा सोक पग पगर्ने विषे होय।।२३॥ व्रते व्रतं चाऽनशनं प्रकृष्टं दानेषु दानं त्वभयं प्रकृष्टम्। रूपेषु रूपं च जिनस्य सारं वाक्येषु वाक्यं समयस्य सारम्॥२४॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ) व्रत में अनशन (जिस में जरा भी खाना न हो) श्रेष्ठ है। दान में अभय दान (जीवन दान) श्रेष्ठ है। रूप में परमात्मा का रूप श्रेष्ठ है। वाक्य में शास्त्र का वाक्य श्रेष्ठ है। (बा) व्रते. व्रतने विषे व्रत ते अणसण महामोर् व्रत छे, दानेषु. सर्वदाननें विषं अभयदान अने ते जीवदया प्रधान में जिम मेघरथ राजा ते शांतिनाथ सोलमा तीर्थंकरनो जीव तेणे,देवता पारधीए परीक्षा कीधी, तिवारें तिहां पारेवा भारोभार आपणा सरीरनो मांस देइने ते राजाई पारेवानें उगार्योते पुण्ये करी ते राजा त्रण पदवी भोगवी करी मोक्षे पहोतां । रूपने विर्षे रूप ते जिनरा[ज]ना रूप उपरांत कोइनुं रूप नही से अने वचननें विर्षे वचन ते प्रस्तावनूं वचन अथवा सूत्र सीधांतनूं॥२४॥ सन्तोषतो हि प्रबलं च सौख्यं सौख्येन कृत्वा भवतीति धर्मः। धर्मेण कृत्वा भवतीति मोक्षः मोक्षे जिनैरुक्तमनन्तसौख्यम्॥२५॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)संतोष से भारी सुख होता है। सुखी (संतुष्ट) होने से धर्म होता है। धर्म करने से मोक्ष मिलता है, और भगवान ने कहा है 'मोक्ष में अनंत सुख है।
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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