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श्रुतदीप-१
(बा) न चाऽस्ति धर्मादधिकं च रत्नं नही छे धर्म थकी अधीको, चिंतामणी रत्न छे, धर्म समो कोय यंत्र नहीं छे। न चाऽस्ति धर्मादधिकं च तन्त्रं. नही छे कोइ पण धर्म समान तंत्र। नचा. नही छे धर्म थकी अधीको मंत्र एहवो जिन धर्म महामंत्र॥१६॥
पापेन जीवो नरकेषु याति सम्पूर्णकष्टं खलु तस्य तत्र। सम्भाव्य चैवं विदुषा विधेयो धर्मः सदा दुर्गतिवारकश्च॥१७॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)पाप करने से जीव नरक में जाता है। नरक में कष्ट-दुःख के सिवा कुछ नहीं है, यह जान कर बुद्धिमान आदमी को चाहिए कि वह दुर्गति से बचाने वाले धर्म का आश्रय करे।।
(बा) पापने करवे करी जीव नरकमांहे जाए जीव नीश्चे, संपूरण अनेक कष्ट दुख नीश्चे तेहने जता टांकणे ज, सम्भाव्य चैवं. कहेतां एम जाणीनें {पंडीत} पंडीते करवूधर्म सदा सरवदा महादुर्गतिनो निवारक छे॥१७॥
___ गन्धेन हीनं कुसुमं न भाति दन्तेन हीनं वदनं न भाति।
सत्येन हीनं वचनं न भाति पुण्येन हीनो पुरुषो न भाति॥१८॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)बिना सगंध का फल अच्छा नहीं लगता। बिना दांत के मुंह अच्छा नहीं लगता।बिना सत्य के वचन अच्छा नहीं लगता और बिना पुण्य के आदमी अच्छा नहीं लगता।
(बा) सुगंध विनां जीमवली कुसम जे फूल पण न शोभ(भे) नीश्चे, सकक्षनूं सरी, जेम मुखमाहें दंत कहेतां दांतने वगर मुख न शोभे। सत्येन. साच वगर वचनं न भाति. वचन पण शोभे नही ज नीश्चे, पुण्येन. पुरवशुक्री(सुकृ)त पुण्य वगर जीम ते पुरुष मनुष्य दीपे नही॥१८॥
एकं जितं येन मनः स्वकीयं पञ्चेन्द्रियाणीति जितानि तेन। नैकं जितं येन मनः स्वकीयं पञ्चेन्द्रियाणि त्वजितानि तेन॥१९॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)जिसने अपना मन जीत लीया उसने अपनी पांचो इंद्रियां जीत ली। जिसने अपना मन नहीं जीता उसने अपनी पांचो इंद्रियां नहीं जीती।
(बा) एकं जो कोइ मनुष एक जीते तेह जेणे पुरुषे ते मन पोतानुं तेणे पञ्चेन्द्रियाणीति. कहेतां पांच इंद्री तेणे पुरुषे जीत्यां जेणे मन ज्यीत्यु तेणे। नैकं. अने पोतानां जेणें पुरुषे नथी जीत्यूं मन जे मनूंक्षे(ष्ये) करण पोता ते पुरुषे कास्यू न जीत्यूंवली ते पुरुष मक्षे बांधइ करण जे वली इंद्री ते किशुं नही ज जीतवा समरथ॥१९॥
शिक्षाक्षरैः किं प्रकरोति मूढो? धर्माक्षरै किं प्रकरोत्यधर्मी?। करोति किं वै जनकः कुपुत्रैः? करोति किं सौम्यगुरुः कुशिष्यैः?॥२०॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ) मूढ शिक्षा के अक्षर को क्या करेगा? अधर्मी धर्म के अक्षर से क्या करेगा? पिता कुपुत्र का क्या करेगा? सौम्य गुरु शिष्यो से क्या करेगा? ।
(बा) शिक्षाक्षरैः कहेतां सीखीने अक्षरें किं प्रकरोति कीशुं करे? नरः मनुष्य मूर्ख, धर्माक्षरैः कहेतां धर्मने अक्षरे किं प्रकरोति हीन सं(स्युं) करे? अधर्मीनें करोति कहेतां सुं करे, जनक जे पिता कुपुत्रे करोति कहेतां पिता पुत्र कपुत्रं करी ते श्यूं करे पिता, वली सौम्य. कहेतां भला समतावंत गुरु कुशिष्य चेले शें करे?॥२०॥