SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रज्ञाप्रकाशषत्रिंशिका (बा) काष्ठे च काष्ठान्तरता यथास्ति काष्ट काष्टमांहे च पुनः ज्यम अंतर घणो छे, एक खेर अमें एक बावना चंदन छे अंतर, दुग्धे च दुग्धान्तरता यथास्ति. कहेतां दुध दुध मांहें च पुनः वलीपण ज्यम अंतर घणो छे, एक दुध आकडा दूध अने एक दूध धेनु ते गौ तेह- दूध तेहमांहि पणवली घणो ज अंतर छे, निश्चे तेह दृष्टांते, जले जलत्वान्तरता यथास्ति वली पांणीमांहे पण घणो अंतर छे. समुद्रनुं खारुं जल छे अने कूप-वाव® मीष्ट छे, गुरौ गुरुत्वान्तरता तथास्ति तेंम गुरु गुरुनें विषं अंतर घणो छे, एक छे गुरु ते मिथ्यातपथना ज प्ररुपक अनें वली एक छे गुरु धर्मना ज प्ररुपक॥१२॥ यतेर्जराऽलङ्करकारिकाऽस्ति चापल्यतारुण्यवयो भयौकः। किं तर्हि कार्यं तरुणर्षिणा च? भूयोऽपि भूयोऽपि तपो विधेयम्॥१३॥(उपजाति) हिन्दी अन्वयार्थः साधु को दुर्बलता शोभा देती है और चपलता से भरा हुआ तरुण वय भयका घर है तो फिर तरुण साधु को क्या करना चाहिए? बार बार तप करना चाहिए। (बा) यते साधुने अथवा जतिने तेहतें जरा वधपणं अलंकारना वलीपण करणहार छे, चापल्यतारुण्यवयो. जतीने चपलपणूं अनें जोवन ए बे साधुजतीने भय- मंदीर छ। किं तर्हि किं सुं ति वारे काम ते. करवू, तरुणर्षिणा तरुण ऋषीने, भूयोऽपि भूयोऽपि ते दिन दिन प्रतें वार वार अपा(?) नीरंतर तपस्यानूं आचरj॥१३॥ काष्ठे च काष्ठे च (कष्टे त्वकष्टे) समचेतसो ये ते भिक्षवस्तारयितुं समर्थाः। __गुप्तेन्द्रिया आत्मविचाररक्ता लाभे त्वलाभे समभावनाश्च॥१४॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)जो कष्ट में और अनुकूलता में समान चित्त रख सकते है जिनका इन्द्रियों के उपर काबू है, जो आत्मा के विचार की रक्षा करते हैं। मिलने पर या न मीलने पर जिन्हे हर्ष शोक नहीं होता वही सा रों की नैया पार लगाने में समर्थ होते हैं। (बा) काष्ठे च काष्ठे च कष्ट पडे अनें अणकष्टे समचीत तेना धणीनें, ते साधु होय नीश्चे, ते भिक्षवस्तारयितुं समर्थाः जे तेह ज तारवानें समर्थ छे नीश्चे एहमाहें संदेह कश्यो नहीं। गप्तेन्द्रिया गोपववा पोतांनइं पंच इंद्री जेणे आत्मभावना विचारें रक्त राता आहारादीक लीधे अथवा अणलीधे समभावना धणी नेंद्रि।।१४॥ सुखायते तीर्थकरस्य वाणी भव्यस्य जीवस्य न चेतरस्य। सुखायते सर्ववनस्य मेघो जवासकस्यैव सुखायते न॥१५॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ)तीर्थंकरो की वाणी भव्य जीव को ही सुख देती है, अन्य को नहीं। बारिश पूरे वन को हर वृक्ष को आनंदित करता है लेकिन जवास के वृक्ष को नही (यह वृक्ष बरसात में मुरझा जाता है)। __(बा) सुखायते तीर्थकरस्य वाणी माठी लागे चोत्रीस अतिसयना धणी तेणे सहीत एहवा भगवंतनी देसना, भव्यस्य जीवस्य न चेतरस्य तुछ संसारी भव्यजीव तेहनें, बीजा जीवनें न सुहाय ते अभव्य जीवनें सुखायते सर्वे प्राणिनें वली सघली वनराइने वरसतो मेघराज जवासकस्यैव सुखायते न कहेतां जवासाने जिम मेघ वरसतो शुहाय नही ते अभव्यवत्॥१५॥ न चाऽस्ति धर्मादधिकं च रत्नं न चाऽस्ति धर्मादधिकं च यन्त्रम्। न चाऽस्ति धर्मादधिकं च तन्त्रं न चाऽस्ति धर्मादधिकं च मन्त्रम्॥१६॥(उपेन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)(इस दुनिया में) धर्म से श्रेष्ठ कोइ रत्न नहीं, धर्म से श्रेष्ठ कोइ यंत्र नहीं, धर्म से श्रेष्ठ कोइ मंत्र नहीं, धर्म से श्रेष्ठ कोइ तंत्र नहीं। १. रक्षा इति मूले जा.भां
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy