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________________ श्रुतदीप-१ (बा) संतोषथी घणूं सुख होय ते च पुनः संतोषे तें निश्चे, प्रबलं. घणूं सुख होय। तीवारे पछी सुखें करीने धर्म थाए निश्चे। अने धर्म करवे करी होय तें मोक्षनां सुख होय मोक्षने विर्षे श्रीभगवंतें जिनराजे कह्या छे सीध मोक्षनें विर्षे छे अनंता सुख छ॥२५॥ गतिर्यादृशी स्यान्मतिस्तादृशी स्याद् धृतिर्यादृशी स्यात् क्रिया तादृशी स्यात्। तपो यादृशं स्यात् फलं तादृशं स्यात् विधिर्यादृशी स्यात् सुखं तादृशं स्यात्॥२६॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ)जिस प्रकार की गति होती है उसी प्रकार की मति होती है। जिस प्रकार की धृति(धीरज) होती है उसी प्रकार की क्रिया होती है। जिस प्रकार का तप होता है उसी प्रकार का फल मीलता है। जिस प्रकार का नसीब होता है उसी प्रकार का सुख मीलता है। (बा) जेहवी गति होय तेहवी मति बुद्धि होय का छे-जेहवी गति तेहवी मति, धीरज जेहवू शूरपणूं होय तेहवी करणी होय। तपचरण जेहवो होय छे तेहनें फलपण तेहवो होय, जेहने भाग्यमांहे जेहवो लीख्यो होय विधातादैवें तेवो ज सुख होये॥२६॥ न मात्रा न पित्रा न मित्रेण राज्ञा न मन्त्रैर्न तन्त्रैर्न यन्त्रैर्न देवैः। न दारैर्न पुत्रैर्न भृत्यैस्तु लक्षैर्गतं चाऽयंते जीवतव्यं न पुंसाम्॥२७॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ) बीता हुआ जीवन कभी वापस नही आता। माता, पिता, मित्र, राजा, मंत्र, तंत्र, देव, पत्नी, पुत्र, लाखों नोकर के द्वारा भी नहीं। (बा) न आपे मातां, न आपे पिता, न आपे मित्र, न आपे राजा, न आपे मंत्र, न आपे तंत्र, न आपे जंत्र, न आपे देवता, न आपे अस्त्री, न आपे पुत्रपुत्री, न आपे भाइबंधव, न आपे सेवक नकर लाखुगमें जीवितव्य गयूं जातां कोइ पण वालां कूटंब मरणने मारगें जाता कोइ नापे जीवितव्य।।२७॥ गृहीतं व्रतं येन पुंसा च भग्नं वृथा तस्य जन्म स्वकीयं च जातम्। गृहीतं व्रतं येन पुंसा न भग्नं वृथा तस्य जन्म स्वकीयं न जातम्॥२८॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ) जिसने व्रत लेकर तोड दिया उसका जीवन व्यर्थ है। जिसने व्रत लेकर तोडा नहीं उसका जीवन व्यर्थ नहीं है। (बा)गृहीतं.लीबूं ग्रह्यं जे व्रत लीधा केडे जेने मनुष्ये भग्नं ते भांग्यूं, वृथा होय तेहनो जन्मः वली पोतांनो जन्म भ्रष्ट होय, वली ग्रां ज व्रत जे पुरुषे [न] भाग्यूं वृथा तस्य तेहनो जन्म फिटकार तेहनों जात अवतार॥२८॥ कृतं रूप्यवेत्रा च रूप्यस्य मौल्यं कृतं हेमवेत्रा हि हेम्नश्च मौल्यम्। कृतं रत्नवेत्रा तु रत्नस्य मौल्यम् कृतं धर्मवेत्रा न धर्मस्य मौल्यम्॥२९॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ)चांदी को जानने वाला उसका मोल कर लेता है।सोने को जानने वाला सोने का मोल कर लेता है। रत्न को जानने वाला रत्नो का मोल कर लेता है, लेकिन धर्म को जानने वाला धर्म का मोल नही कर पाता। (बा) कीधो रूपानो जाणणहार जिम रूपानूं मूल, कीधो सोनांने पारखें करी सोनानूं मूल, कीधो रत्ननो पारखो तेह रत्ननो मूल्य, कीधो धर्मने जांणणहार तेहनें धर्म तेहनूं मूल थाए॥२९॥ गृहावासमध्ये वसद्देहभाजां सदा द्रव्यचिन्ता सदा पुत्रचिन्ता। सदा दारचिन्ता सदा बन्धुचिन्ता सुखं नास्ति चिन्तापरस्येति किञ्चित्॥३०॥(भुजंगप्रयात)
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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