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ज्ञानक्रियासंवाद छत्रीसी
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पुण्य बहुत तब भोगविलासी जिण पणि राज्य करइ अविनासी॥११॥ भोग विना सो मुगति न चाहइं, भोग्य लही रागादिक चाहई। तप प्र(थ)इं पाप होवइं तो धोवइं, नहीतरि वेग(गे) केवलि होवइं॥१२॥ भावभजन विनु व्रत जो पावई, समय अनंता युंहि कहावई। अंतरिमहूरति मई शिव होवई, जो अपना आप ही गुण जोवई॥१३॥ ज्ञान के नय अयसा जब भासई, तब किरिया नय आप प्रकासई। दक्ष नटी न हु नृप संतोषई, नृत्यकला जो सरस न पोषई॥१४॥ ज्ञानी तारु पार न पावै, जो निय हस्त न पाउ हलावई। ताहुं परीक्षक विनु व्यापारइ, मणिथइं अपनी लच्छि वधारइं॥१५॥ पाचक याचक वाचक सबही, किरिया विनु फल न लहै कबही। मोदक ज्ञानी तृपति न पावई, जो उसके मुह मोदक नावइं॥१६॥ ज्ञानीः यतना जिनभाषी, बहु सिद्धांत यांहै(इहां) साखी। ज्ञानी चारहूं गतिमैं लहीयई, मानवगति व्रत शिवफल कहीयई।।१७।। केवल लबधि होत व्रतयोगई, सो संपूरण मानव लोगई। ज्ञानइके लाइक गुणठाणई, किरिया देसथई जिनवर जाणइं॥१८॥ ज्ञान कह्यां युं सकल गुणकुंची, निष्ठारंभई किरिया उंची (किरीया इक सोपानई ऊंची)। देसे ऊणी पूरवकोडी, केवलीयै क्यु सिध्दि न जोडी ?॥१९॥ अतिउत्तम तब ज्ञानी होता, शैलेसी संवर न पहुता। समय अनंतर शिवपद पावइ, सर्वोत्तम संवर जब आवइ॥२०॥ ज्ञान इकेला अच्युतदेवै, व्रतथइं ग्रैवेयक सुर लेवइं। ज्ञानदशा व्रतथई फल आपई, ज्ञान इकेला क्युं करि थापई ?॥२१॥ जियके पुन्य कह्या मु(सु)णि सोई, कटक मधुर ऊषध रुज दोई। कटु यतनइ करि सोऊ अपारा, तिहां उपदेश तणा व्यवहारा॥२२॥ किरिया साखी दियइ तब ज्ञानी(जा), दिन ज्युं वादल रवि छवि जानी। तरुकोटर जो अगनि न फरसइं, तब शाखा नवपल्लव विकसइं॥२३॥ घटमैं सारसुधारस आवै, रोगातंक सो दूर ही जावईं। अंतरज्योति बाह्य दिखलावई, यौवन मदभावादि जगावई॥२४॥ अब कहइं अंतरज्ञान अवाजइं, सहजइ ही व्रतकादी न भाजै। सब दृष्टांत इह विधि साधई, काहे उदयरी व्रत आराधई।।२५।।