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श्री उदयविजय रचित
॥ज्ञानक्रियासंवाद छत्रीसी॥ सकलपण्डितशिरोमणिपण्डि(त) श्रीलब्धिसोमगणिगुरुभ्यो नमः॥
ज्ञानक्रिया नय दोउ है प्रवचन के मंडाण, प्रथमज्ञान के नय कहइ अपनै पक्ख प्रमाण॥१॥ ज्ञान रयण ज्ञान ही सयण ज्ञान ही अनुपम ज्योति(त), ज्ञानरुचके उदयथै केवल तरणि उद्योत॥२॥
(राग-केदारो गोडी) केवल तरणि उदय तब पावइं, ज्ञानप्रभात समय जब आवइं। सो मिथ्यामति रजनी विच्छेदै मोहसु जागर जब कछु वेदइं॥१॥ मोहनिंदथै जागो प्राणी, करि कछु संगति सदगुरु ज्ञानी। ज्ञानदशा सदगुरुथै जागइ, ज्युं तिलवास कुसुमकी लागई।॥२॥ जागि हु प्राणी जागि हु प्राणी॥(आंकणी) सम्यकज्ञान सकलमुखकुंची, ताथइ शुद्धदशा हुइ उंची। ज्ञानसुं थिरता रूप जगावइ जयसा अपउवन कमल कहावइ॥३॥ अशुभविकल्पतरंग न हुवई, लूतातंतु त्यायि न हु गूठई। ममता फिर समता गुण लावई, जैसइंधात हेम गुन पावइं॥४॥ ज्यु अभ्यंतर उवसम जागइ, तब उत्तम पदवी करि लागई। बाहिर कष्टि अकष्ट अनंता, रायप्रसन्नचंद दृष्टांता॥५॥ मरुदेवीसु ऋषभजिन माई, गज परि बइठी शिवपद पाई। कंडरीक-पुंडरीक विचारे, शुद्धदशा थई काज सुधारे॥६॥ शुद्धभाव जब अंतर जागई, आश्रव का तब जोर न लागई। कुपित गज क्या गिरि का लेवइं?, पाटु गगन कहो कुण देवइ?॥७॥ उपसमतरुकी शीतल छाया, ता परि ज्ञान सुधारस पाया। संवेग सार तरंगइ भीजइं, कहु क्युं करि तृसना न हु छीजइं?॥८॥ अजब ज्योति अपनी युं आवइं, विश्वभाव अनुकूल ही भावई। बाह्य क्रिया डंबर क्यं राचइं?, मोहदशा थई कर्म निकाच।।९।।
प्रथम ज्ञान तब थै अहिंसा, आगमे बोलइ जिन अवतंसा। ज्ञान विना मणि कक्कर जैसा, वानर करि मणि न लहइं पइसा॥१०॥
जाके पुण्य पाप दोई होवई, बहुत होइ सो ज्ञानी जोवई।