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श्रुतदीप-१
उत्तर शक्ति निमित्त खुलाई [खोलइं] (निमित्तसु लाई), निद्द लहै सुं बोलाया बोलई ?। दोहद धूपित तस फल देवइं, वेद जगावत नर त्रिय सेवइं॥२६॥ जलकी सीतलता जलमाहिं, तो भी पवन उदारै प्राहै। अग्नि अगर परिमल प्रगटावई, पारद प्रिय तंबोल जगाव।।२७॥ कुरु बक बकुल बहु दृष्टांता, निमित संयोगई निय फलवंता। बुद्धिवंत अभ्यासई बूझइं, व्रतथइं अपनी शकति ही सूझई।।२८॥ लबधि सुमति की है घटमाहिं, तो काहे गुरुसेवा चाहै ?। गुरु(की)सेवा जैसी दीष्या(क्खा) भावषु लावै ताथै शिक्खा॥२९॥ सुद्धज्ञान ज्युं व्रत आग(द)रिसै, व्रत पणि ज्ञानदशाकू तरसै। अंतरभाव बाह्यकुं चाहै, बाह्यभाव अंतरि अवगाहै।।३०॥ तीव्रवेद सो संगम कामइं, संगमथै वेदोदय पामइं।
अंतरभाव बाह्यथै जागई, बाह्यसंग नर उत्तम मागइं॥३१॥ माषतुषादिक व्रतथइ ज्ञानी, ज्ञानीकी तेही व्रतथिति आनी। मंददशा सुजगाई जागई, तीव्रदशा फल लेवा लागई॥३२॥ अन्योन्य कारणता दीसइं, समभावई क्युं दिल न हु हीसइं ?। वस्तुगति दोऊं जोडाजोडि, हयच्छाया ज्युं होडाहोडि।।३३।। रुपईया चोभंगी धारे, तिहां निश्चयव्यवहार विचारे। अडभंगी पिण साची भावे, ज्ञान क्रिया दोऊ मिलि करावइं॥३४॥ एह विचारमैं जस मति राचै, सो समकित दृष्टि मन माछ। इण परि तत्त विभावो लोगा, जय मंगलमाला नितु भोगा॥३५॥ विजयदेवगुरु के पटधारी, विजयसिंह सदगुरु हितकारी। उदयविजय दोऊं नय सराहै पक्ख प्रमाण तणा शुभवाहै॥३६॥
॥इति श्रीज्ञानक्रियासंवाद छत्रीसी संपूर्ण॥
॥शुभं भवतु श्री॥