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श्रीस्याद्वादगर्भित श्रीवीरस्तवन
(विमल कमलदल आंखडी जी ए देसी)
धन धन आगम ताहरो जी, भाखीइ जिहां स्याद्वाद ।
निसुणि उपयोगमां राखीइ जी, चाखीइ समरस स्वाद ध०॥१॥
वस्तुना धर्म अनंतमैं जी, मुख्यपणें करी जेह शब्दथी अर्पित उच्चरे जी, स्यादस्ति प्रथम छे एह॥ध॥२॥
परतणा धर्मनी जेहमां जी, नास्तिता मुख्य वखाण। वस्तुनी वस्तुता साधता जी, बीजो ए भेद प्रमाण॥० ॥ ३ ॥
सदसदधर्म गवेषणा जी, एक काले होइ जेण । तृतीय भांगे अवक्तव्यता जी, शास्त्रमां भाखिरं तेण ॥ध॥४॥
अनुक्रमै धर्म गवेषतां जी, समपणे उभय प्रधान। अस्तिनास्ति इम बोलीइं जी, स्यात्पद संयुत जाण ॥ध॥५॥
वर्तता धर्मनी मुख्यता जी, वली निज पर गुण भास। अस्ति अवक्तव्य इम लहो जी, द्रव्य गुण पर्याय वास ॥ध॥६॥
नास्तिता धुरी करी समपणेन जी, उभयनी एषणा जाण । नास्ति अवक्तव्यता एहवुं जी, शब्दथी बोलीइ तांम॥ध॥७॥
अस्ति नास्ति अवक्तव्यता जी, निजपर उभय पर्याय । अनुक्रमे समपणें इच्छतां जी, सातमो भेद ए थाय॥ ६० ॥८॥
भाष्य तत्त्वारथ वृत्तिमां जी, सप्तभंगी बहु हु । बहुश्रुत गुरुमुख सांभली जी, भांगीइ मन तणी भ्रांत ॥ध० ॥९॥
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