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(आदरी जीव खमा गुण आदरी ए देशी)
श्री जिनवीर जयो जगनायक, स्यादवाद सुखदाय जी। धन मुज ते दिन
तु मुख निरख (ख्यो ), त्रिविधइं प्रणमुं पाय जी ॥१॥
तुज आगममां भाव अपूरव, सुणतां आनंद थाय जी । सज्जनसंगे अनुभव रंगे, मुखथी ते न कहाय जी॥२॥ तुं मुज साहिब हुं तुज सेवक, कृपा करीने दयाल जी। दर्शन ज्ञानादिक गुण भोगी, भांजो मोह जंजाल जी॥३॥ अशुद्ध प्ररूपक जे श्रुतधारी, मन धेरै अति अहंकारी जी। आप पडे तिम परने पाडे, तेहनो कुण आधार जी॥४॥
जे मुख भाखे उद्भट भाषा, ते शासनथी दूर जी । पापे पिंड भरीने थास्ये, नरक निगोद हजूर जी ॥५॥ सर्व आशातनथी पण मोटुं, विरुद्ध प्ररुपक पाप जी। जाणंता पण बोले जुठु तेह विगोवे आप जी ॥६॥
माटे हुं तु पद प्रणमी, मांगु वारोवार जी । शुद्ध प्ररुपकता मुज दीजे, आतमचा आधार जी॥७॥ इह भव परभव प्रभु आगमथी, विरुद्ध प्रकास्युं जेह जी। तुम्ह साखे श्री वीर जिनेश्वर मिच्छा दुक्कडं तेह जी॥८॥ श्रीकल्याणसागरसूरीश्वर, सुरगुरुसम श्रुतधारी जी। गुरुसेवाथी पुण्य महोदय, लहीइ प्रवचन सार जी॥९॥ ॥इति श्रीस्याद्वादगर्भितश्रीवीरस्तवनम्॥
श्रुतदीप - १