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________________ श्रीकल्याणसागरसूरीश्वरशिष्यविरचित ॥श्रीस्याद्वादगर्भितश्रीवीरस्तवन॥ ॥श्रीस्याद्वादाय नमः॥ त्रिशलामात सुजात जयो शासनपती रे, तुज आगे करजोडि करुं नित वीनती रे। स्याद्वाद शुभरीत पुनीत प्रकाशीइं रे, तुज आगममां जेम यथारथ भासीइंरे।आ०॥१॥ भोग त्यजी भजी योग थयो तु संयमी रे, द्रव्य भाव करी लोच विषय तृष्णा दमी रे। जीती परिसह वर्ग समाधि दशा धरी रे, सहज स्वभावनी ऋद्धि ते भोग्यपणे करी रे॥आ०॥२॥ केवलज्ञान दिवाकर तीरथ थापवा रे, कुमति कदाग्रह कंप(पंक)थी पार ऊतारवा रे। भाखें तुं जगनाथ सुदेसना धर्मनी रे, भवि जनने ते हेतु होइ शिवशर्मनी रे।आ०॥३॥ केवल नित्यता वाद सदूषण परिहर्यो रे, तिम हीं अनित्यता पक्ष सदाश्रय नवि कर्यो रे। उभय रहित नरसिंह परै जे तुं कहे रे, समकित विण कहो कोण ते पक्षनें सद्दहे रे॥४॥ द्रव्यास्तिक कहे द्रव्य सनातन अन्वयी रे, भासे नानाकार धरे पणि अव्ययी रे। नवि अछतो उत्पाद छतो न विनाशीइं रे। एक अभेद एकांत पणे इम भासीइरे।आ०॥५॥ गुणगणना समुदायथी वस्तुनी वस्तुता रे, साध्य विज्ञान ते कारज भेदथी प्रस्तुता रे। बहविध धर्मनो योग ते द्रव्य तमे गण्यो रे, इम प्रतिषेध प्रधान पर्यायास्तिक भण्यो रे।आ०॥६॥ अर्पितानर्पित सिद्ध करी ते थापीयारे, तिणे तुज आगममांहि बिहुं मिली व्यापीया रे। स्यात् पद परम रसायन देइ धर्यो रे, कुधातु पणि कंचन थइ ते परवर्या रे।।आ०॥७॥ जेह प्रमाणे जेम वस्तुनी अस्तिता रे, तिम हि ज लाभे तिणमें परनी नास्तिता रे। सहभावी क्रमभावी धर्म विशेषथी रे, थापे तुं स्याद्वाद प्रभु अविगानथी रे॥आ०॥८॥ उत्पाद व्यय ध्रौव्यता वस्तुपणुं भजे रे, एक निषेधइ तेहमां अवर सवे त्यजइ रे। द्रव्य गुण पर्याय कारणकार्यपणुं लहे रे, एह यथारथवाद सदागममा रहे रे।आ०॥९॥
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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