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रत्नाकर स्तवन
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किहां आतम नही पुन्य न पाप, कटु भासे चिर नास्तिक आप। ते पण सदही धिग मुज वाणी, केवलभानु छते प्रभु ज्ञानी॥५॥ सा०मो. प्रभु पूज्या नही संघ पूज्या में, श्रावक धर्म न साधु रुच्या में। सामग्री मनुजादिक पांमी, अरण्य रुदन करी नीकली में स्वामी॥६॥ सा०मो० भरत न सुरगवी सुरतरु हमणा, सुरमणि अछते करी तस रटणा। ध्यायो न धर्म प्रगट सुखदाई, मूरखता मुज देखो सांइ॥७॥ सा.मो. उत्यम भोग भज्यो गणी लीला, नही जाण्यो ते रोगना खीला। आगम धन तो अहनिश चाहु, आवतो मरण ते दिलमें न भावं॥८॥ सामो० खीणखीण समरी समरी न जाण्यो, नरकनी गतिनो बंध ज बाण्यो। मोह विकल अधर्म बहु कीधो, पातिक मे नही कारज सीध्यो॥९॥ सा.मो. न रही साधुमां साधु बुद्धि, परउपगार न जसनी सुधी। न कर्यो तीरथ उद्धरणादिक [काज], धिक हार्यो में जन्म एक ज॥१०॥ सा.मो. गुरु उपदेशे न थयो वैरागी, दुरजन वचने न समता लागी। देव अध्यातम लेश न धार्यो, किम भव तरणे हुं योग्य हारो॥११॥ सा.मो. न को धर्म परभव भवमें, जाणु न करीसु अनागत जन्म। गतभव धर्म न करी थयो दीनो, निष्फल नाठा मुज भव तीनो॥१२॥ सा.मो. तुम विण कोण पोकार हमारी, सुणस्ये स्वामी हृदये विचारी। भरमजाल जो तोडो मारी, थास्ये प्रभु [तो] सेवा तोरी॥१३॥ सा.मो.
(ढाल ४थी)
स्याने निष्फल बहुविध मारा, चरित्र तणी कहुं वात। इन्द्रपूज्य एक समयमें जाणो, जगवरतन विख्यात। हो स्वामी तुमथी कछुअन छानो॥१॥ प्रभु आगे छे कितनोक महारो, जाणनको अधिकार। भुवन विशेचित्त(षित) निश्चत जाणो, लोकालोक विचार हो स्वामी॥२॥तु. दीनहीन तु उद्धरण धुरंधर, तुम सम अवर न कोइ। जगबंधु जगनायक जिनजी, शरण कों में जोइ स्वामी॥३॥तु. करुणावंत जिम नही तुम सरिखो, तिम हीन दयानो नाण। ए जनमाहे न मोसो तोही, जाचु न कमला निधान हो स्वामी।॥४॥तु० तोस्यं अरहत एही ज केवल, फीरी धरम मीलन शिवरंग। श्रीरत्नाकर मंगलसदन, कर कल्याण अभंग हो स्वामी॥५॥तु.