________________
१३४
श्रुतदीप-१
इम थुणता श्री वीर जिणंद, वरते आणंद पूर। बुडे नही रत्नाकर तटे वसता, पास हजुर हो स्वामी॥६॥तु. घोघा बंदर सुंदर मंदीर, सोहे जास उदार। धर्म वाहनमें हुवा थंभ सम, करवा भवोदधि पार हो स्वामी॥७॥तु. नवखंडा प्रभु पास पसाये, भवभय नबलो कीधो। वृद्धिविजय गुरु पद सेवनसे, मन वंछित मुज सिध्यो हो स्वामी॥८॥तु. कालीदास भट्ट जिनमति रसियो, जिन गुण ध्यान गंभीर। तस आग्रहथी करी ए रचना, कवि पंडित न हु धीर हो स्वामी॥९॥तु. संवत उगणीस अडवीस वरसे, करी घोघे चउमास। आसो वदी बारस सुभ कारक, संघ सहित उलास हो स्वामी॥१०॥
॥इति श्री रत्नाकरस्तवनं सम्पूर्णम।।