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श्रुतदीप-१
नही परभव नो हित कीधो, नही आभवनो सुख लीधो। प्रभु जन्म हमारो जाण्यो, संसार पुरणकु मान्यो॥३॥ सु० मनहर वरतुल्य लक्षणे पूरो, तुम मुखचन्द्र जग दुःख चूरो। आनंद रस देखी न पावे, मनडो कठन घन शैल्य हरावे॥४॥ सु० मनसा निठुरनो कारण कर्म, तुं जाणे प्रभु ते सवि मर्म। दुर्लभ बहु भवे तुमथी पायो, रत्नत्रयी मोहनींद गमायो॥५॥ सु० तुमसो दीसे दयालु न कोय, पोकार सुणी दी[जि]ए गत धन मोय। भयो परवंचन वैरागी, धर्म[उ]पदेशे करुं जन रागी॥६॥ सु. विद्या भणी में जितन वादी, आतम हित न कीयो एकादी। मुज हसवा योग्य चरित्र, प्रभु केता कहुं जगमित्र॥७॥ सु० मुखडं खीसे निंदा करी परनी, मेले नेन निरख पर रमणी। परपीड करण चित धारी, प्रभु शी गति होस्ये हमारी॥८॥ सु. कामदसा वसे संजमे अरति, संताप उर्हालु करती। विषय अंधे विटम्ब्यो मे प्राणी, ते कही लाजे तुमे सहु जाणी॥९॥ सु० कामण वशीकरणादि मंत्रे, हण्यो परमेष्ठी मंत्र करी तंत्रे। कामशास्त्र सिखन मन रंग, करुं आगमवाणी भंग॥१०॥ सु. मति मम पानी कुदेव कुसंगे, देखो कुकर्म करुं बहु रंगे। समकित रत्न विणास्यो ऐसे, हित सुख प्रभु मुज थास्ये केसे॥११॥ सु०
(ढाल ३जी)
दृगलक्षे आव्या प्रभुने मे छारी, मूढ गति हृदये ध्याई में नारी। दृष्टि कटाक्ष कुच नाभि विशाल, कटि तटी मुखना विनोद रसाल॥१॥ साहिब सुणो त्रिशलानंद, मोहना मुखकंद।(आंकणि) मृगनयणी सुख निरखे लाग्यो, तारक मन मेरो तब मल राग्यो। न गयो निर्मल सुद्ध समुद्रे, धोता दुःख बहु दीयो ते हृदे॥२॥ सा मो० अंग चंग नही गुण गण कोय, निरमल कला विलास न जोय। देदीप्यमान न को ठकुराई, जूठ गुमाने कदरथ्यो हुं सांई॥३॥ सा मो० आयु घटे न घटे अथ पापबुद्धि, गयो जीवन नही विषय कुबुद्धि। उद्यम तनु पोषणनो न धर्म, नाथ विटम्ब्यो हुं मोह के भर्म॥४॥ सा मो०