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अज्ञातकर्तृक ॥भगवतीसूत्रनी गहुली॥
पंचमांग भगवति जांणीये रे, जिहां जिनवरना वचन अथाह रे। हिमवंत पर्वतसेंती नीकळ्या रे, मानुं गंगासिंधु प्रवाह रे॥पं.॥१॥ सूरपन्नत्ति नामे पाहुडो रे, जेहनो छे उदार उवांग रे। सूत्रतणी रचना दरीया जिसी रे, माहिला अर्थ जस जलतरंग रे॥पं.॥२॥ इहां तो श्रुतखंध एक अति भलोरे, एकसो एक अध्ययन उदार रे। दस हजार उद्देसा जेहना रे, जिहां कणे प्रश्न छत्तीस हजार रे।।पं.॥३॥ पद तो दोय लाख अरथे भर्या रे, उपर सहस अठ्यासी जांण रे। लोकालोक सरूपनी वर्णना रे, विवाह पण्णत्ती अधिक प्रमाण रे।पं.॥४॥ गौतम नामे नांणु मुंकीए रे, समकित ज्ञान उदय होय जेम रे। कीजिए साधु तथा सांमी तणी रे, भक्ति जुगति मन आंणी प्रेम रे।।पं.॥५॥ करीए पूजा ने परभावना रे, धरीए सद्गुरु उपर राग रे। सुणीए सूत्र भगवती रागसू(सुं) रे, तो होय भवसागरनो त्याग रे॥पं.॥६॥ इणी परे एह सूत्र आराधतां रे, इणि भव सीझे वंछीत काज रे। परभव विनयचंद्र कहे ते लहे रे, मोहन मुगतिपुरीनो राज रे।।पं.॥७॥१
१. अंतिम वाक्य- इति श्री भगवतीजीनी गवली संपूर्णम्।।