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अज्ञातकर्तृक ॥गुरुगुण गहुली॥
पूरो सोहागण साथियो भक्तिरागते कुंकुम घोली रे। नरभव लाहो लिजीये शुभध्यांन बरासमांहि चोली रे॥पू.॥१॥ सुमति सोहागण सब मिली गावो अनुभव गुरुगुण रंगे रे। समकित मोती रुयडे मन थाल भरी गुरुसंग रे।पू.॥२॥ ज्ञानाचार परमुख तिहां पेरी भूषण नव नव अंगे रे। घाट ओढी घंटी समो संजममांहि निज मन चंगे रे॥पू.॥३॥ चार सखी टोली मली मैत्री करुणानुमुदिता रे। चोथी उपेक्षा रुयडी भव्यादिक जोग उदिता रे।पू.॥४॥ नयवादादिक वाजा तिहां वगडावो विविध प्रकारे रे। गावो अनुभव गुरुगुणना जसे विरति सिंहासण सार रे॥पू.॥५॥ इत्यादिक जे दोहेली सामग्री ते सवि पांमी रे। अवसर पांमी लाहो लिजीए जो मोक्षतणा छो कांमी रे॥पू.॥६॥ इणि परे जे गवलिं करे द्रव्यभावथी गुरुगुण गावे रे। अनुत्तर सुख ते अनुभवि न्याइ आनंदघन पद ते पावे रे।पू.॥७॥?
१. अंतिम वाक्य- इति गुहली संपूर्ण ।