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प्रथमः पादः
(सूत्र) अत: समृद्ध्यादौ वा ।। ४४।। (वृत्ति) समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरकारस्य दीर्घो वा भवति। सामिध्दी
समिध्दी। पासिध्दी पसिध्दी। पायडं पयडं। पाडिवआ पडिवआ। पासुत्तो पसुत्तो। पाडिसिध्दी पडिसिध्दी। सारिच्छो सरिच्छो। माणंसी मणंसी। माणंसिणी मणंसिणी। आहिआई अहिआई। पारोहो परोहो। पावासू पवासू। पाडिप्फद्धी पडिप्फद्धी। समृद्धि। प्रसिद्धि। प्रकट। प्रतिपत्। प्रसुप्त। प्रतिसिद्धि। सदृक्ष। मनस्विन्। मनस्विनी। अभियाति। प्ररोह। प्रवासिन्। प्रतिस्पर्धिन्। आकृतिगणोयम्। तेन। अस्पर्श: आफंसो। परकीयं पारकेरं पारक्कं। प्रवचनं पावयणं। चतुरन्तं चाउरन्तं।
इत्याद्यपि भवति। (अनु.) समृद्धि, इत्यादि प्रकारच्या शब्दांत, आदि अकाराचा विकल्पाने दीर्घ
(म्हणजे आकार) होतो. उदा सामिद्धी.....पडिप्फद्धी. (या शब्दांचे मूळ संस्कृत शब्द क्रमाने असे:-) समृद्धि...प्रतिस्पर्धिन्. हा (समृद्धयादिगण) आकृतिगण आहे. त्यामुळे (येथे न दिलेल्या शब्दांमध्येही) अस्पर्श .....चाउरन्तं, इत्यादिसुद्धा (येथे सांगितलेल्याप्रमाणे विकार) होतात.
(सूत्र) दक्षिणे हे ।। ४५।। (वृत्ति) दक्षिणशब्दे आदेरतो हे परे दीर्घो भवति। दाहिणो। ह इति किम्।
दक्खिणो। (अनु.) दक्षिण या शब्दात, (क्ष च्या वर्णान्तराने) पुढे ह आला असताना, आदि
अ चा दीर्घ (म्हणजे आ) होतो. उदा. दाहिणो (पुढे) ह आला असताना असे (सूत्रात) का म्हटले आहे ? (कारण क्ष च्या वर्णान्तराने ह येत नसेल, तर अ चा दीर्घ स्वर होत नाही. उदा.) दक्खिणो.
(सूत्र) इ: स्वप्नादौ ।। ४६।। (वृत्ति) स्वप्न इत्येवमादिषु आदेरस्य इत्वं भवति। सिविणो। सिमिणो।
आर्षे उकारोपि। सुमिणो। ईसि। वेडिसो। विलिअं। विअणं। मुइंगो।