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तृतीयः पादः
(सूत्र) नामन्त्र्यात्सौ मः ।। ३७।। (वृत्ति) आमन्त्र्यार्थात्परे सौ सति क्लीबे स्वरान्म से: (३.२५) इति यो म्
उक्तः स न भवति। हे तण। हे दहि। हे महु। (अनु.) संबोधनार्थी सि (हा प्रत्यय) पुढे असताना ‘क्लीबे स्वरान्म से:' या सूत्राने
सांगितलेला जो म् तो होत नाही. उदा. हे तण...महु.
(सूत्र) डो दी? वा ।। ३८।। (वृत्ति) आमन्त्र्यार्थात्परे सौ सति अत: से?: (३.२) इति यो नित्यं डोः
प्राप्तो यश्च अक्लीबे सौ (३.१९) इति इदुतोरकारान्तस्य च प्राप्तो दीर्घः स वा भवति। हे देव हे देवो। हे खमासमण हे खमासमणो। हे अजरे हे अजो। दीर्घः। हे हरी हे हरि। हे गुरू हे गुरु। जाइविसुद्धेण पह। हे प्रभो इत्यर्थः। एवं५ दोण्णि पह जिअलोए। पक्षे। हे पह। एषु प्राप्ते विकल्पः। इह त्वप्राप्ते हे गोअमा हे गोअम। हे
कासवा हे कासव। रेरे चप्फलया। रेरे निग्घिणया। (अनु.) संबोधनार्थी सि (हा प्रत्यय) पुढे असताना ‘अत:से?:' या सूत्राने जो डो
नित्य प्राप्त झाला होता तो तसेच ‘अक्लीबे सौ' या सूत्राने इकारान्त व उकारान्त तसेच अकारान्त (शब्दाच्या अन्त्य) स्वराचा जो दीर्घ प्राप्त झाला होता, ते विकल्पाने होतात. उदा. हे देव...अज्जो. दीर्घ (स्वराचे उदाहरण):- हे हरी...पहू; (येथे) हे प्रभु असा अर्थ आहे; एवं...लोए. (विकल्प-) पक्षी:- हे पहु. या (हरि, गुरु, प्रभु, इ.) शब्दांत (दीर्घ स्वर) प्राप्त होत असताना विकल्प आहे. (तर) येथे (म्हणजे पुढील उदाहरणात दीर्घ स्वर) प्राप्त होत नसतानाही (पुढीलप्रमाणे आढळते:-) हे गोअमा...निग्घिणया.
१ तृण
२ क्षमाश्रमण ३ आर्य ४ जातिविशुद्धेन प्रभो। ५ एवं द्वौ प्रभो जीवलोके। ६ प्रभु ७ गौतम ८ कश्यप ९ चप्फलय (निष्फल, खोटे बोलणारा) हा देशी शब्द आहे. १० निघृणक