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द्वितीयः पादः
(सूत्र) डिल्लडुल्लौ भवे ।। १६३।। (वृत्ति) भवेऽर्थे नाम्न: परौ इल्ल उल्ल इत्येतौ डितौ प्रत्ययौ भवतः। गामिल्लिआ।
पुरिल्लं। हेट्ठिल्लं। उवरिल्लं। अप्पुल्लं। आल्वालावपीच्छन्त्यन्ये। (अनु.) (अमुक ठिकाणी) झालेला (=जन्मलेला) या अर्थी नामापुढे इल्ल आणि
उल्ल असे हे दोन डित् प्रत्यय येतात. उदा. गामिल्लिआ...अप्पुल्लं. या भवच्या अर्थी आलु आणि आल असे प्रत्ययही येतात असे काहींचे म्हणणे आहे.
(सूत्र) स्वार्थे कश्च वा ।। १६४।। (वृत्ति) स्वार्थे कश्चकारादिल्लोल्लौ डितौ प्रत्ययौ वा भवतः। क। कुंकुम
पिंजरयं। चंदओ। गयणयम्मि। धरणीहर-पक्खुब्भन्तयं। दुहिअए राम-हिअयए। इहयं। आलेढुंअं आश्लेष्टुं इत्यर्थः। द्विरपि भवति। बहुअयं। ककारोच्चारणं पैशाचिक-भाषार्थम्। यथा। वतनके वतनकं समप्पेत्तून। इल्ल। निजिआसोअ-पल्लविल्लेण। पुरिल्लो पुरो पुरा वा। उल्ल। मह पिउल्लओ। मुहल्लं । हत्थुल्ला। पक्षे। चन्दो। गयणं। इह। आलेढुं। बह। बहअं। मुहं। हत्था। कुत्सादिविशिष्टे तु संस्कृतवदेव
कप् सिद्धः। यावादिलक्षण: क: प्रतिनियतविषय एवेति वचनम्। (अनु.) क आणि (सूत्रातील) चकारामुळे इल्ल आणि उल्ल हे दोन डित् प्रत्यय
विकल्पाने स्वार्थे (प्रत्यय आपण स्वत: याच अर्थी) होतात. उदा. (स्वार्थे) क (प्रत्यय) :- कुंकुम...इहयं ; आले?अं (म्हणजे) आश्लेष्टुं असा अर्थ आहे. (हा स्वार्थे क प्रत्यय एकाच शब्दाला) दोनदाही लागतो. उदा. बहुअयं. (सूत्रामध्ये) क हे उच्चारण पैशाचिक भाषेसाठी आहे. जसे :
१ ग्रामं, पुरः (पुरा) (सू. २.१६४ पहा), हे? (सू.२.१४१ पहा), उपरि, अप्प (सू.२.५१ पहा) २ क्रमाने :-कुंकुम-पिञ्जरकम्, चन्द्रक, गगन, धरणीधर-पक्ष-उद्भ्रान्तकम्, दुःखित
रामहृदय, इह, आश्लेष्टुम्. ३ बहुअ
४ वदनके वदनकं समर्प्य। ५ निर्जित-अशोक-पल्लवकेन ६ मम पितृकः।
७मुख, हस्त.