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________________ गुजराती पद्यकृति एहवो लिंगभेद यद्यपि भासें छे पिण ऋजुसूत्रनय न माने ते कहें छे। जिम कोइ एक समुद्र नदी सरोवर प्रमुखना उपकंठनें तट कहिये छ। ते तट त्रिण्हें लिंगे छ। अर्थ भेद पिण भिन्न भिन्न कहई छई, पिण वर्तमान समय कालमांहिं भेद न कह्यो अनइं ऋजुसूत्र तो वर्तमान कालने ज कहें छइ, बीजो कोइ भेदांतरनै कहितो नथी। बीजा घणाइं भेद छइं पिण वर्तमान समयमांहि तो कोई भेद नथी। ए परमार्थ जोतां लिंगभेद न घटइं ऋजुसूत्रने विषइं। तिम वली वचन भेद पिण मानें नहि। वचन पिण व्याकरणइ तीन कह्या छई। एकवचन (१), द्विवचन (२) बहुवचन (३) एकोऽस्ति, द्वौ स्तः, बहवः सन्ति ए वचनभेद यद्यपि वस्तुनई विषई भासें छइं पिण वर्तमान समय एक ज छइं ते माटें ऋजुसूत्रनय वचन भेद न मानें। तथा नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ए च्यार निक्षेपा न मानें। नामइंद्रनइं इंद्र कहइं, थापना इंद्रनें इंद्र कहें, द्रव्य इंद्रनें इंद्र कहें, भावइंद्रने पिण इंद्र कहें। वर्तमानकाले जे निक्षेपो वर्ततो हुंइं तेहनें तिम कहें। ऋजुसूत्र वर्तमान समयग्राही छई। पिण योग्यायोग्य शब्दार्थ ग्राही नथी। चतुर्णां निक्षेपाणां मध्ये आद्यास्त्रयो द्रव्यास्तिकनये भावनिक्षेपस्तु पर्यायास्तिकनये इति तत्त्वार्थे। ऋजुसूत्र भावनिक्षेपो ज माने, बीजा न मानें। अत्र प्रसंगथी च्यार निक्षेपानो अर्थ विस्तारइ लिखीयई छई। पहिलो नाम निक्षेपो (१), बीजो थापनानिक्षेपो (२), त्रीजो द्रव्यनिक्षेपो (३), चोथो भावनिक्षेपो (४)। निक्षेप कहितां रचना कहीयें, निधि कहीइं। ते मध्ये प्रथम निक्षेपानो अर्थ लिखीये छई। जे अन्य अर्थनइ विषई रह्यो हुई, अर्थशून्य हुई, बीजाना पर्यायनें कहें नही, पोतानी इच्छाई करी कह्यो हुई एहवं जे वस्तुनुं नाम तेहनई नाम निक्षेपो कहीयें। तत्र दृष्टान्तः—जिम कोइक गोपाल दारक- इंद्र एहवं नाम छइं पिण ते नाम सौधर्मा सभाने विषं वर्ते छइं, बत्तीस लाख विमानना अधिपतिनें घटे पिण ते दरिद्र ग्वालणीना बालकनें न घटें ए नामगुणनिष्पन्न भावेंद्रने ज घटें पिण निर्गुण नामनें विषं न घटें गर्वगहेली माताई मोहांधकार व्याकुलचित्तथकी आयणीपुसीइं नाम दीधुं छई पिण परमार्थ कोइ नथी एतलें भावशून्य ते नामनिक्षेपो कह्यो इति नामनिक्षेपो। (१) __ हवें स्थापनानिक्षेपानो अर्थ लिखीयें छं। भावरहित हुई पिण भावपणानो अभिप्राय कल्पीने मांडी हुई तेहनें थापना कहीइं। ते थापना बे प्रकारनी। स्थापना-द्विधा स(द्)भूतस्थापना असद्भूतस्थापना च। सद्भूता यथारूपं प्रतिबिम्बम् असद्भूता अक्षादिषु गुरुस्थापना। तत्र दृष्टान्तः– जिम कोई एक मोही प्राणीइं पाषाणनी मूरति घडावी मस्तकें मुकुट पहिरावी, कानें हुंडल घाली, कोटि हार घाली, हाथें वज्र आपी, वस्त्र विभूषित करी थापी ते ऊपरिं तन-धन-मन समर्पण करें छइं जे माहरें इंद्र एहि ज, एहनी सेवा भक्ति गुणग्राम कीधां सकल वांछितनी प्राप्ति होइ इम जाणी सेवां करे छे पण मूरति पाषाणनी छे, तेणें कांइ शुभाशुभ कर्तव्य जाणवू नथी, जे जाणहार छे ते तो भावेंद्र छे, सौधर्मा सभानें विषं विराजें छई। ते भणी परमार्थ जोतां थापना पिण मोहनी कल्पना छई। तथा अत्र कोइ पूछिस्थे— नाम थापना बेमांहिं भेद किस्यो छइं? अर्थशून्य तो बेहुं छे ते माटें अभेद कहो। तेहनें इम कहिइं—नाम-थापनामांहिं अर्थथकी भेद नथी, पिण कालथी भेद छे। नाम ते यावत् काल तांइं नामधारक वस्तु रहइं तावत्काल तांई तेणिं नामइं बोलावीजई छई। एतलें नामनो क्षणे क्षणे परावर्त न थाइं यथा मेरु जंबूद्वीप
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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