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________________ गुजराती पद्यकृति जातां आगलइं वृक्षावली देखी गहन स्वरूप जाणी का आगलि वन छइं ए सामान्य वचन ए संग्रहनय कहीइं। जे कारणइ वनशब्द बोलातें जे वनमाहिं नानाप्रकार धव-खदिर-पलास-अंब-निंब-जंब-कदंब-ताल-तमाल-नागपुन्नागाशोकादि वृक्ष तथा शश-शृगाल-हरिण-रोझ-संबर-शूकर-सिंह-चित्रकादिक अनेक जीव तथा भील नीभालि अनेक गोकुल-वावि-पुक्खरणी-सरोवर-कूप-द्रहादिक अनेक जलाश्रय इत्यादिक अनेराई घणा भाव संग्रहीइ छइ परं वचन एक ज आगलें वन छइं तेणें कारणिं संग्रहनय। (२) हवइ व्यवहारनय कहीयें छई। जे सर्व द्रव्यने विगत निश्चय एतलई स्यो? भावनिश्चय ते कहीइं जे तत्त्वदृष्टि पुरुष अनेक अनेक अधिका भाव एक पदार्थनई आश्रय जाइं ते भाव तिहां नथी परं लोक प्रसिद्ध एक कोइ अर्थ ते विनिश्चयार्थ जाणवो एहवो जे अर्थ ते सर्वद्रव्यनइं विषई प्रवर्ते छई। ते व्यवहार नय जाणवो। ए नय सामान्य अर्थ न बोलइ जिम जगमाहिं घट पदार्थ छइ। तो कहइ व्यवहारि प्रवर्तइं? लोकप्रसिद्ध जल आणवा काजइं। इणिपरि वस्त्र पहिरवाने काजइं, स्तंभ घरना आधारनइ काजि, पुस्तक भणवानइ काजइं; वांचवाने काजें इत्यादिक लोकप्रसिद्ध एकेको व्यवहार बोलइं। बीजी परि एकेको पदार्थ अनेक व्यवहारें प्रवर्ते छई। एतावता सामान्य नहि अनि निश्चय पिण नहि एणिं कारणे व्यवहारनय जाणवो। अथवा जे जगमांहि घटपटादि वस्तु छइ। यद्यपि ते पंच वर्ण, बइ गंध, पंच रस, आठ स्पर्श, पंच संस्थान एतलई स्यो भाव? जिहां एक वर्ण, एक गंध, एक रस, एक स्पर्श, एक संस्थान तिहां तत्त्वदृष्टिं पंच वर्ण, बइ गंध, पंच रस, आठ फरस, पंच संस्थान छइ तथापि लोकप्रसिद्धइ जिहां जे नीलादि वर्ण प्रकट दीसइ ते पदार्थ तेहवो कहीइं। ए व्यवहारनय जाणवो। व्यवहारनय वीतराग पिण कबूल करें। यदुक्तम् ववहारो वि हु बलवं जं वंदइ केवली वि छउमत्थं। आहाकम्मं भुंजइ सुयववहारं पमाणंतो॥ जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए मुअह। ववहारनयच्छेए तित्थुच्छेओ जओ भणिओ॥ ए सात नयमध्ये पहिला च्यार नयनें विषइं अर्थ प्रधान छइ ते माटें अर्थनय कहीइं। आगल्या तीन नय शब्द प्रधान ते माटइं शब्दनय कहीइं। तथा पहिला तीन द्रव्यास्तिक नय कहीइं। द्रव्यनइ ज अर्थ कहें परमार्थ थकी, पिण पर्यायनें न कहें ते माटें द्रव्यास्तिकनय कहीइं। आद्यास्त्रयो द्रव्यास्तिका इति वचनात्। तथा छेहला च्यार नय पर्यायास्तिक जाणवा वस्तु थकी पर्याय ज छइ, पिण द्रव्य नथी इम कहइ ते पर्यायास्तिक नय कहीइं। शेषाश्चत्वारः पर्यायास्तिका इति वचनात्।। ___ तथा द्रव्यास्तिक पिण बें प्रकारनो छइ। एक अशुद्धद्रव्यास्तिक, बीजो शुद्धद्रव्यास्तिका तत्र अशुद्धद्रव्यास्तिक बिं प्रकारनो। एक नैगम, बीजो व्यवहार। ए बिहुँने अशुद्धद्रव्यास्तिक कह्या तेहनो परमारथ कहइं छइ। अनंत परमाणु पुंजनें अनंत व्यणुक खंधने इम संख्यात असंख्यात अनंत प्रदेशीया खंधनइं एकगुणकालादि, द्विगुण कालादि, अनंकगुणकालादि संयुक्तनें तथा त्रिकालादि संयुक्तनें तथा त्रिकाल विषयनइं प्रत्येकिं प्रत्येकिं द्रव्य कहइं। अनेकता प्रतिपादक छइ ते माटइं अशुद्ध कहीइं। तथा संग्रहनय ते शुद्धद्रव्यास्तिक जाणवो। ते केवल परमाणुनें ज द्रव्य कहइं। ते पिण एक गुणकालादिक संयुक्त होइं तेहनइं ज द्रव्य कहइं, पिण द्विगुण कालादिकनो
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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