SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयामृतम्-२ छइ। वली त्रीजी वार पूछु तिवारइं इम का हुं जंबूद्वीपमांहि वसुं छु ए बीजाथी शुद्ध छे। बीजामांहिं असंख्याता द्वीपसमुद्र भासता हुंता एमांहि तो एक ज द्वीपसमुद्र भासे छे। वली चोथी वार पूछु तिवारें कहुं हुं भरतक्षेत्रइं वसुंछु ए त्रीजाथी शुद्ध छइं। त्रीजामांहि तो सप्त क्षेत्र भासतां हंतां। एमाहिंतो एक ज क्षेत्र भासइ छइं। पछइं का हं मगधदेशे वसुं छु। चोथाथी शुद्ध इं चोथामांहि तो छत्तीस हजार देश भासता हुंता एमांहि तो एक ज मगधदेश भासें छई। पछइ वली का हुं पाटलीपुर वसुं छइं ए पांचमाथी शुद्ध छड़। पंचमामांहिंतो अनेक ग्राम नगर भासतां हुतां एमांहि तो एक ज नगर भासइं छइ। वली पूछ्यो तिवारें का हुं देवदत्त साहने पाडइ वसुं छु। ए छट्ठीथी शुद्ध छइ। छट्ठामांहि तो घणा पाडा भासता हुंता एमांहि तो एक ज पाडो भासई छई। पछइं वली कां हुं जे चित्रित बारणइं नकसीकाम छइ, उंचौ झरुंखो छइ, उपरि बंगलो छइं तेणें घरि वसुं छु ए सातमाथी शुद्ध नैगम एमांहि पिण घणा गमा छइं। ऊपरि वली भूमिका, विचली भूमिका भूहिरां प्रमुख घणा ठाम छइं न जाणीइं किहां वसतो हुसइं। ते माटइ ए नैगमनय। ए दशमी इग्यारमी बारमी गाथानो अर्थः॥१०॥११॥१२॥ [मूल] सयल भुवनमां वस्तु जे, कालत्रय तस ठाम लाल रे। ते पर्यव सवि संग्रहें, संग्रहनय तिणि नाम लाल रे॥ तुझ०॥१३॥ (१.१०) सामान्यात्मक वस्तुनें, संग्रह मानें एक लाल रे। विण सामान्य खपुष्पवत्, नहि विशेष अनेक लाल रे॥ तुझ०॥१४॥ (१.११) विण वणस्सइ को नहि, अंबादिक तरुवंद लाल रे। अलगी कबहि न संभवई, कर विण अंगुलि मंद लाल रे॥ तुझ०॥१५॥ (१.१२) प्रवृति निवृत्ति हुई लोकनी, जेणिं ते व्यवहार लाल रे। ते पर्यव छई वस्तुनो, पिण सामान्य म धारि लाल रे॥ तुझ०॥१६॥ (१.१३) वली व्यवहार कहइं सुणो, व्यक्ति रूप सवि अर्थ लाल रे। व्यक्ति भिन्न सामान्य जे, खरविषाण परि व्यर्थ लाल रे॥ तुझ०॥१७॥ (१.१४) कोइ वनस्पति लें कहइं, तेस्युं ज्यइं तिणि वार लाल रे। आम्रफलादि विशेष विण, ते सवि शून्य असार लाल रे॥ तुझ०॥१८॥ (१.१५) औषध करि कोई कहें, न कहें तेहनुं नाम लाल रे। सामान्यथी सीझें नहि, हुई विशेषथी काम लाल रे॥ तुझ०॥१९॥ (१.१६) ए त्रिण आगममां कह्या, द्रव्यार्थिक करी छेद लाल रे। हवें सुणिइं कहुं लेशथी, पर्यायार्थिक भेद लाल रे॥ तुझ०॥२०॥ (१.१७) [बाला| हवइं संग्रहनयनो अर्थ लिखीयइं। संग्रह ते कोनई कहीइं? सकलभुवनत्रयमध्यवर्ती त्रिकालकलितवस्तुनें ग्रहें ते संग्रहनय कहीइं। यदुक्तम्संगहियपिडियत्थं संगहवयणं समासओ बिंति। वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वदव्वेसु॥ जिहां भावनो अर्थ पिंडित संग्रहीइं पिंडितस्युं कहीइ, जिहां एक शब्द बोलतां घणा संग्रहीइं ते पिंडितार्थ एहवं तीर्थंकर गणधर संग्रहनयनुं वचन बोलई। ए संग्रहनय एक सामान्य अर्थ ज कहई, पिण विशेष न कहई। जिम मार्ग
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy