________________
गुजराती पद्यकृति
[नयानां परस्परविरोधः]
(ढाल-१३, राग-मल्हार, वीरमाता प्रीतिकारिणी ए देशी) [मु.] मूल नय जाति भेदि, कह्या नैगमादि सरूप।
सूक्ष्म भेद एहना होइं, प्रत्येकिं शत रूप॥१३.१॥(१५८)
श्रीजिनवर मत निरमलुं, जिहां सवि नय भासइं॥आंचली।। [टबार्थ| मूलनय सात जाति भेदि कह्या नैगम प्रमुख स्वरूप थकी। सूक्ष्मभेद व्यक्तिं करीइं तो एह सात नयनें
एकेकाना प्रत्येकि सो सो भेद थाइं॥१३.१॥(१५८) [म.] अरथनय आदिम चउ, यदा त्रिण्ये शबदनय एक।
मूल नय पंचना पंचसिं, आदेशांतरि छेक॥श्रीजिन०॥१३.२॥(१५९) [टबार्थ पहेंला च्यार नयनिं अरथनय कहीइं । अर्थ अपेक्षाइं प्रवर्ते माटई। आगल्या त्रिण्य नय शब्दनय
कहीइं। शब्द अपेक्षाइं प्रवर्त्या माटइं। तिवारिं मूल नय पंच थाई। तेहना उत्तर भेद पांचसिं थाइं।
वाचनांतरिं उत्कृष्ट भेद एतला जाणवा॥१३.२॥(१५९) [मु.] संग्रहनि व्यवहारथी, नैगम किहां एक भिन्न।
एह कारणि परिभाषिका, सूत्रइं सातनी विन्न॥श्रीजिन०॥१३.३॥(१६०) [टबार्थ| संग्रहनय अनि व्यवहारनय थकी नैगमनय कोइक ठामि प्रदेशादिक दृष्टांतनं जूदो छइं। ते मात्रै प्रसिद्ध
भाषा अनुयोगद्वारादिक सूत्रिं सातनी जांणवी। नैगम सामान्यग्राही तथा विशेषग्राही इंम बे प्रकारें छे। तिहां पहेलो संग्रह मांहिं बीजो व्यवहारमांहिं भलें तोहें प्रदेशादिक दृष्टांत जूदो छ। माटें सात नय
कहींइं इति भावः॥१३.३॥(१६०) [मु.] भेद असंख्य पणि संभवई, इति भाष्यमा भाख्यु।
ते सवे समुदित जे धरइं, तेणिं समकित चाख्यु॥श्रीजिन०॥१३.४॥(१६१) [टबार्थ भेद असंख्यातापणि ऊपजई। एहवं विशेषावश्यकें अत्र गाथा
जावंतो वयण पहा तावंतो वा नयाविसद्दाओ। ते चेव य परसमया सम्मत्तं समुदिया सव्वे॥ तेह समकिती जाणवो ॥१३.४॥(१६१)। एकेक अंश ग्रही अंधका, कहें जिम गज पूरो।
तिम अहंकार नयवादिनि, जाणइं अंश अधूरो॥श्रीजिन०॥१३.५॥(१६२) [टबार्थ इकेका नयना माननार मिथ्यादृष्टि होई। ते ऊपरि दृष्टांत कहें छे। इकेक अंस जे सुंडि प्रमुख तेहना
ग्रहेंनार जे अंध पुरुष जिम एकेका अंसनें हाथी पूरो कही बोलावई तिम अहंकारी नयवादी एकेक अंसनिं संपूर्ण वस्तु करी जाणइं॥१३.५॥(१६२)