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नयामृतम्-२
[टबार्थ एहवू दिगंबर कहें छे ते खोटुं। तिहां हेतु कहें छई। जीवने विर्षे एवंभूत नय औदयिक भावनो ज
ग्राहक कह्यो छे। तो क्षायिक भावना जे केवलज्ञानादिक तेहनिं किम ग्रहइं?॥१२.२२॥(१५१) [म. आयुकर्मोदय रूप रे, जीवन अरथनो।
छइं सदभाव संसारीइं ए॥१२.२३॥(१५२) [टबार्थ हवें फलितार्थ कहें छे। आयुकर्मना उदय रूप जे जीवन शब्दना अरथनी सत्ता संसारी जीवनें विर्षे
छई। जीव कहीइं प्राणधारीनिं अनि प्राण तो औदयिक भावना ते ए नय माने ते माटइं आउखारूप जे प्राण तेहनें उदयिं संसारीनि जीव कहीइं। अनि यद्यपि इंद्रिरूप प्राणनिं क्षायोपशमिकपणुं छे तथापि
प्रधानपणे आयुकर्मोदय लक्षणनिं ज जीवन अर्थ- ग्रहण ईहां कीधुं इति भावः॥१२.२३॥(१५२) [म.] सिद्धनिं जीवत्व दाख्यं रे, मलयगिरी मुखिं।
ते तो नैगमादिक मति ए॥१२.२४॥(१५३) [टबार्थ सिद्धनिं जीवपणुं कहिउं मलयगिरी प्रमुखि ते तो नैगमादिक नयनें लेखें जाणवू ॥१२.२४॥(१५३) [मु.] एह नयाभिप्रायई रे, पन्नवणादिकि।
जीवन पज्जययुत्तपणइं ए॥१२.२५॥(१५४)॥ [टबार्थ] अनेक शास्त्रिं पणि सिद्धनि जीव कही बोलाव्या छे ते ग्रंथनिं अनि ए ग्रंथने विरोध थाइं ते निराकरें
छ। एह नयनें मतिं पन्नवणादिक सूत्रिं प्राणधारणरूप पर्याययुक्तपणे करी॥१२.२५॥(१५४) [म.] जीव अशाश्वतो दाख्यो रे, इंम सवि ग्रंथनि।
संमत अरथ विभावीडं ए॥१२.२६॥(१५५) [टबार्थ] जीव अशाश्वतो कह्यो। इंणी रीति सर्व सूत्रने संमत अरथ विचारीइं। जो क्षायिकभाविं निश्चय प्राण
अपेक्षाइं जीव कह्यो होइं तो शाश्वतो कहत इति भावः॥१२.२६॥(१५५) [म. ए नयमतिं पणि सिद्ध रे, सत्त्वनि आतम ए।
व्यपदेश लहइं सही ए॥१२.२७॥(१५६) [टबार्थ हवें ए नयनें मतिं सिद्धनि जीव न कहीइं तो स्युं कही बोलावीइं? ते ऊपरि कहें छइं। एवंभूत नय मति
पणि सिद्धनिं सत्त्व कहीइं, सत्तायोग माटइं। तथा आत्मा कहीइं, नवनवा पर्यायनि अतति कहेंतां पांमें ते आत्मा। ए अर्थयोगें एहवें शब्दई बोलावीइं॥१२.२७॥(१५६) ए नयनिं पणि इष्ट रे, भाव निक्षेपक।
इति नय सपतक दाखीया ए॥१२.२८॥(१५७) [टबार्थ एवंभूतनयनिं पणि भाव निक्षेपो ज मान्य छइं। इंणी रीतिं साते नय कह्या स्वरूप थकी॥१२.२८॥(१५७)
॥इत्येवंभूतनयः सप्तमः॥