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गुजराती पद्यकृति
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जीव द्रव्य पतीजइं रे, केतो जीवना। देश प्रदेश हवई ए नयो ए॥१२.१६॥(१४५) अजीव एहवं आमंत्रण] कीधइं पुद्गलद्रव्य आदि शब्दें धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य जाणवा। तथा नोअजीव एहवं आमंत्रण] कीधइं जीव द्रव्यनो बोध थाइं। नोशब्द निषेध वाची ए पक्षि। अथवा नोशब्द देश निषेधक ए पक्षिं पुद्गलादिक जीव द्रव्यना देश प्रदेश जाणीइं। ए च्यारें बोलने प्रश्ने नैगमादिक नयने मतिं उत्तर कह्यो। हवें एवंभूत नय कहें छे ॥१२. १५,१६॥ (१४४,१४५) जीव प्रतिं औदयिक भावग्राहक एह। जीव वदई संसारीनिं ए॥१२.१७॥(१४६) जीव प्रति औदयिक भावनो वांछनार एह एवंभूत नय। ते माटें जीव ते संसारीनिं ज कहइं॥१२.१७॥ (१४६) नोजीव इति अजीव रे, के सिद्धह प्रति। अजीव इति आकारितिं ए॥१२.१८॥(१४७) पुद्गलादिके सिद्ध रे नोअजीव इति। आकारण कीधइ हुंतइ ए॥१२.१९॥(१४८) नोजीव एहवें आमंत्रणिं अजीवनें कहइं। नोशब्द देश निषेधक ए पक्षं के सिद्ध प्रतिं कहें, जे माटें सिद्ध ते संसारी जीवनो एक देश छई, अजीव एहवं आमंत्रण कीधई पुद्गलादिक पांचे द्रव्य कहइं। नोअजीव एहवं आमंत्रण कीधे हुंतइं॥१२. १८,१९॥(१४७,१४८) ग्रहई संसारी जीव रे, देशप्रदेशनी। कलपन तो एहनिं नही ए॥१२.२०॥(१४९) संसारी जीवनिं कहें नोशब्द निषेधक वाची ए पक्षि। अनि देश निषेधकनी अपेक्षाइं तो अजीवना देश प्रदेश ग्रहीइं। तेहनी कलपना तो एह नयनें मतिं छे नही, अखंड द्रव्यनि ज मानइं॥१२.२०॥(१४९) एवंभूताभिप्रायइं रे, सिद्ध ज जीव छई। भावप्राणनइं धारवइं ए॥१२.२१॥(१५०) हवें ईहां दिगंबरनुं मत कहें छे। एवंभूत नयनें मतिं सिद्धनि ज जीव कहीइं। भावप्राणना धरवा माटें। भाव प्राण ते ज्ञान१ दर्शन२ रूप चेतना। तिक्काले चउपाणा, इंदियबलमाउआणपाणो या ववहारो सो जीवो, णित्थयदो दुचेयणा जस्स॥ त्ति ॥१२.२१॥(१५०) इति कोइक ते मिथ्या रे, जीव प्रति एह। तुरियभाव ग्राहक कह्यो ए॥१२.२२॥(१५१)
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