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गुजराती पद्यकृति
तिहां स्यात् एहवू पद ते अनेकांतता, वाचक छइं। ऊद्ध्वग्रीवादिक जे पोताना पर्याय तेहनी सत्ताइं विवेक्ष्यो हुँतो घट द्रव्य कुंण रूपिं छइं? ते कहें छइं। घट द्रव्य आपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप पर्याइं छतो छ। स्यात् कहेंतां कथंचित् इति भावः॥१॥१०.६॥(११०) पर परयायई असदभाविं करी, विशेषित नहीं कुंभ रे। स्वपरोभय परयाई सत्ता, असत्ताई कुंभ रे॥श्री.१०.७॥(१११) युगपद् विशेषित होइं अवाच्यो, एकदा एकदेश रे।
असंकेतिक दोय अरथ कहें नहीं, ए त्रिण्य सकलादेश रे॥श्री०॥१०.८॥(११२) [टबार्थ हवें बीजो भांगो कहई छई। स्यान्नास्ति घटः।२ पर जे घटादिकना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप जे
पर्याय तेहनी असत्ताइं विवेक्ष्यो थको नथी घट द्रव्य इति द्वितीय भंगः॥२॥ हवें त्रीजो भांगो स्यादवक्तव्यो घटः।३ पोताना पर्यायनी सत्ता अनि अपर पर्यायनी असत्ताइं घट द्रव्य।। साथिं विवेक्ष्यो थको अनिर्वचनीय छे। तिहां युक्ति कहें छइं। एकिं कालिं अनि एकें शब्दिं जेहनो संकेत नहीं एहवा बे अर्थ न कहेंवाइं एतला माटें अवक्तव्य इति तृतीयः॥३॥ ए त्रिण्य भांगा अखंड द्रव्यनी अपेक्षाइं विवेक्ष्या माटें सकलादेश कहीइं॥१०.७, ८॥(१११, ११२) तह एकदेशइं निजपरयाई, सदरूपिं सविशेष्यो रे।
अपरइं परभावई असत्त्वइं, अस्ति नास्ति इति रेष्यो रे॥श्री०॥१०.९॥(११३) [टबार्थ हवें चोथो भांगो स्यादस्ति नास्ति घटः।४ घट द्रव्य तेहना एक देशनै वि पोताना परयायनी सत्ताई
विवेक्ष्यो थको अनइं बीजें देशे पर पर्यायनी असत्ताइं विवेक्ष्यो थको अस्ति नास्ति कहीइं। इति चतुर्थो भंगः॥४॥१०.९॥ (११३) एकदेशइं निजभावई सत्त्वइं, विशेष्यो अन्यदेशई रे।
युगपद ग्रह तें घट तव होवें, अस्ति अवाच्य आदेशइं रे॥श्री.१०.१०॥(११४) [टबार्थ हवें पांचमो भांगो स्यादस्ति अवक्तव्यो घटः।५ एकदेशनें विषं पोतानें पर्यायनी सत्ताइं विवेक्ष्यो, अन्य
बीजे देशिं समकालिं स्व-पर पर्यायनी सत्ता असत्ताई विवेक्ष्यो घट अस्ति अवाच्य एहवो कहीइं इति पंचमः॥५॥१०.१०॥ (११४) परभाविं एक देशइं असत्त्वइं, अपरइं युगपद कहेवइं रे।
अरपित नास्ति अवाच्य कहीजइं, सघले स्यातपद वहवइं रे॥श्री.१०.११॥(११५) [टबार्थ हवें छट्ठो भांगो। स्यान्नास्ति अवक्तव्यो घटः।६ एकदेसिं परपर्यायनी असत्ताई अनिं बीजें स्थानकिं
उभय पर्यायनिं समकालिं कहेंवें विवेक्ष्यो घट नास्ति अवाच्य कहीइं॥६॥ सघले भांगें स्यात् पद जोडते अर्थ थाइं॥१०.११॥ (११५)