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नयामतम-२
[मु.]
सदभाविं एकदेशई स्वभाविं, एकिं परपरयाई रे।
असत्त्वइं अन्यदेसिं युगपद, विशेषित कहवाइं रे॥श्री.१०.१२॥(११६) [टबार्थ हवें सातमो भांगो स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्या७ एक देसिं पोताना पर्यायनी सत्ताइं, अनि बीजें देसिं
पर पर्यायनी असत्ताइं। वली अपरदेसिं उभय पर्यायनी सत्ता-असत्ता समकाल विवेक्षाइं कहवाइं॥७॥ ॥१०.१२॥ (११६) घट अस्ति नास्ति अवाच्य आदेशइं, ए सप्तभंगी पूरी रे।
स्यादवाद मत लीना मानइं, शबदादिक अधूरी रे॥श्री.१०.१३॥(११७) [टबार्थ] ते कहें छे। घट अस्ति नास्ति अवक्तव्य। इंम शब्दे बोलाई। ए सप्तभंगी संपूर्ण थई अनेकांतमतवादी
मानें। अनि शब्दादिक नयवादी ओछी मानें, कोई भांगो मानइं। घट अस्त्येव इत्यादिक निर्धार वाक्य
कहें पणि स्यात् पदनी योजना न करइं इति भावः॥१०.१३॥(११७) [मु.] एह विशेष कह्यो महाभाष्यइं, सप्तभंगीनुं बीज रे।
ते अभ्यसी परमारथ सीधो, भींजाडी निज मीज रे॥श्री.१०.१४॥(११८) [टबार्थ
अहवा पच्चुपन्नो रिउसुत्तस्साविसेसिओ चेव। कुंभो विसेसिअयरो सम्भावाईहिं सद्दस्स॥ सब्भावासब्भावोभयप्पिओ सपरपज्जओ उभयओ। कुंभांकुंभावत्तव्वोभयरूवाई भेउ सी॥
त्ति॥१०.१८॥(११८) ॥इति शब्दनयः पञ्चमः॥
[म.]
[टबार्थ
॥अथ समभिरूढः॥
(ढाल-११, राग-सामेरी) परयाय बहुनो अर्थ रे, एकत्वई इछई व्यर्थ रे। अर्थ रे, प्रत्येकि सवि शबदनो रे॥११.१॥(११९) हवें समभिरूढनुं स्वरूप कहें छई। इंद्रपुरिंदरादिक जे अनेक पर्याय तेहनो एक ज अर्थ वांछे छे। शब्दनय जे माटें सर्व शब्दनो अर्थ प्रत्येकिं जूदो मानइं अनिं समभिरूढ कहें छइं— ते खोटुं॥११.१॥(११९) एहवो अध्यवसाय रे, ते समभिरूढ कहाय रे। थाय रे, पूरवथी पणि सूक्षमो रे॥११.२॥(१२०) सर्व शब्दनि जूजूआ अर्थ मानवानो जे अध्यवसाय ते समभिरूढ कहीइं। पूर्व नय पर्याय भेदि पणि अर्थ अभिन्न माने अनि अति भिन्न मानइं इति सूक्ष्यमता। एह नय पूरवल्याथी सुद्ध जांणवो॥११.२॥(१२०)
[मु.]
[टबार्थ