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गुजराती पद्यकृति
[मू.]
संग्रह संगृहीत अरथ विभाजको रे, जिम सत द्रव्य पर्याय ।
जीव अजीव दुविध द्रव्य भावीइं रे, इंम पज्जय पणि थाय॥श्री०॥८.६॥(९२)
[टबार्थ] हवे फलितार्थ कहें छ । संग्रहि महासत्ताइं सर्व वस्तु संग्रही तिहां सत्ता सामान्यें सर्व सद्रूप संग्रहें मान्युं तिहां व्यवहारनय कहें - ते सत् बे प्रकारें [एक] द्रव्य बीजो पर्याय । वली तिहां पणि संग्रहिं द्रव्यत्वरूपिं सकल द्रव्यंनो, पर्यायत्वरूपिं सकल पर्यायनो संग्रह कीधो तिहां वली विवहार भेद करई छइं। द्रव्य पणि बे प्रकारे जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य । इम द्विधा भावी । इंम पर्याय पण द्विधा भावीइं॥८.६॥(९२)
[मू.]
सहभावी क्रमभावी इति दुविधा कह्या रे, रूपादिक सहभावि।
नवीन पुराणादिक क्रमभावीया रे, इंम बहुविध मनि भावि॥श्री०॥८.७॥(९३)
[टबार्थ] ते देखाडें छें। एक पर्याय सहभावी द्रव्यनें संघातिं ज नींपना बीजा क्रमभावी अनुक्रमिं थया इंम बे प्रकारें कह्या। तिहां वर्णादिक ते सहभावी कही । गुण एहवा संज्ञाइं बोलावी । नवा जूना प्रमुख क्रमभावी पर्याय इंम अनेक प्रकारिं विशेष भावीइं । जे माटें द्रव्य पणिं अनेंक, तद्गत पर्याय पणि अनंत। तिहां पूर्व पूर्व भेद संग्रह संमत, परपर तेह ( भेद) व्यवहारसंमत इति तात्पर्य: (र्यम्)॥८.७॥(९३) पज्जयथी गुणविगतिं भिन्न दाखव्यो रे, संमति ग्रंथिं रे जोय । जो 'त्रीजो पदारथ पामीड़ रे, तो त्रीजो नय होय ॥ श्री० ॥८.८॥(९४)
गुण
[टबार्थ] ईहां कोइ कहेसें सत्ताना भेदक द्रव्य अने पर्याय एं बे पदार्थ कह्या । तिहां त्रीजो गुण पदार्थ कां न कह्यो? ते उपरि कहें छइं। पर्यायथी गुण कांई विगति जूदो नथी कह्यो । संमति ग्रंथनें विषं विचा जूओ। तिहां उपपत्ति कहें छ । जो गुण पदार्थ त्रीजो होइं तो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनी पर गुण ग्राहक गुणार्थिक पणि त्रीजो नय जोईइं। ते तो नथी ते माटें गुण जूदो नहीं इति भावः ॥८.८॥(९४)
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[मू.]
[मू.]
निश्चयथी पंचवरणिं भमरई कालिमा रे, अंगीकरइं सवि लोक ।
तिम एह नय पणि अंगीकरई मुदा रे, इति लोकिं सम रोक॥ श्री०॥८.९॥(९५) [टबार्थ] वली व्यवहारनयनो ज विषय देखाडे छें। निश्चयनयनें लेखें पंचवर्णसंयुक्त भमरो तिहां केवल कालो गुण मानें सर्व प्राणी । तेह लोकनी परिं ए व्यवहारनय पणि इंम ज मानें। एतला माटें लौकिक व्यवहारनिं ज अनुसरई।। ८.९।। (९५)
[मू.]
कुंडी श्रवइं वाट जाई इत्यादिकिं तथा रे, प्राई इछई उपचार।
ए नय इति तत्त्वारथ भाष्यमां रे, मानई निक्षेपा ए च्यार ॥ श्री० ॥८.१०॥(९६)
[टबार्थ] वली विषयांतर देखाडे छ । कुंडी श्रवें छई, मार्ग जाई छें इत्यादिकिं प्राई उपचार बोलाई छ । जे
१. गुणसद्दमंतरेणावि तं तु पञ्जवविसेससंखाणं। सिज्झइ णवरं संखाणसत्थधम्मो तङ्गुणोंत्ति।। (सन्मतितर्क ३.१४)