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नयामतम-२
[मु.]
तुल्य परिणामपणा थकी रे, घटाकार घट एव।
मत्पिंडादिक द्रव्य घडो रे, ते पणि घट ज कहेव॥चतुर.॥५.१३॥(६०) [टबार्थ| सरिखा परिणामपणे करी घटनो आकार तेह घट ज कहीइं। इति था(स्था)पनासिद्धिः। मृत्पिंडादिक जे
घटनुं कारण तेह पणि घट ज कहीइं॥५.१३॥(६०) परिणाम-परिणामि भावनी रे, अन्यथा न होई उपपत्ति।
भाव घटइं घटपदतणी रे, असंदिग्धपणे वृत्ति॥ चतुर.॥५.१४॥(६१) [टबार्थ| ते उपरि हेतु कहें छई। घटरूप कार्य ते परिणाम, मृत्पिंडरूप कारण ते परिणामी। ए संबंधनुं कारण
कार्यनिं भेद मानें ते(तो) घटमानपणुं न होइं। इति द्रव्यनिक्षेपकसिद्धिः। भावघटनें वि तो घटपदनी संदेह रहित ज शक्ति छइं। भावघटनें तो सहूइं घट मानें छे तिहां उपपत्ति सी देखाडवी?॥५.१४॥(६१) भावनिक्षेपो मानतइं पणि, नहि द्रव्यार्थिक हाणि।
परतंत्रइं पज्जाय गहइं रे, श्रीभद्रबाहुनी वाणि॥चतुर.॥५.१५॥(६२) [टबार्थ ईहां कोई कहेंसें जे भाव तो पर्याय कहीइं अनि तेहनि मानतें हुँतें नैगमनिं पर्यायार्थिकता थाई। तो ते
ऊपरि कहइं छइं। नैगम नयनिं भावनिक्षेपो मानतें पणि द्रव्यार्थिकपणानी हाणि नही। जे माटें द्रव्यार्थिक पणि उपचारिं पर्यायनिं मानें। श्रीभद्रबाहस्वामि का छे आवश्यक निर्यक्तिं। गाथा जीवो गुणपडिवन्नो नयस्स दव्वट्ठियस्स सामाईयं॥ इति।।
जीव समभावरूप गुणसंयुक्त ते द्रव्यार्थिकनयनें लेखें सामायक कहीइं इति अर्थः॥५.१५॥(६२) [म.] प्रत्येकिं नामादिका रे, सामान्यग्राही एक।
वंछइं विशेषग्राही तथा रे, भिन्न विगति अनेक॥चतुर.॥५.१६॥(६३) [टबार्थ हवें समय नामादिक निक्षेपा केतली संख्याइं मांनइं ते कहइं छइं। नैगम सामान्य अनि विशेष बेहुनि
मानें तेणिं नैगम बे प्रकारेंनो। तिहां सामान्यग्राही नैगम तो अनेक घटनें घटत्व रूपिं संग्राह्या माटें एक ज मानें। प्रत्येकिं नामादिक ४(च्यार) निक्षेपाइं सामान्यग्राही नैगम इकेकी संख्याइं मानइं। विशेषग्राही नैगम ते जूदी जूदी अनेक व्यक्तिनें मानें इति भावः।।५.१६॥(६३)
॥इति नैगमनयलक्षणस्वरूपकथनम्॥