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गुजराती पद्यकृति
॥अथ नामादिचतुर्निक्षेपस्वरूपकथनम्॥
(ढाल-६, राग-परजीओ, सीता हरी रावण जब आव्यो ए देशी) [म.] इहां प्रसंगिं विवरी कहई, निक्षेपानो विचार रे।
जेहनो अनुयोगद्वारिं बोल्यो, सवि वस्तुई अधिकार रे॥
सुणो प्राणी रे जिनवाणी गुणनी खाणी रे॥६.१॥(६४) आंचली [टबार्थ] ईहां नयना अधिकारमाहें निक्षेपानो प्रसंग आव्या मात्रे विवरीनिं विचार कहीइं छई। जेह निक्षेपानो
अनुयोगद्वारसूत्रिं सर्व वस्तुई अधिकार बोल्यो छई। यतःजत्थ य जं जाणिज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरविसेस। जत्थ य नो जाणिज्जा, चउक्कयं निक्खवे तत्थ॥६.१॥(६४) नाम जे वस्तुतणुं अभिधानक, थापना तस आकार रे।
भूतभावी भावनुं जे कारण, तेह द्रव्य मनि धारि रे॥ सुणो०॥६.२॥(६५) [टबार्थ| नाम निक्षेपो ते कहीइं जे शब्दें वस्तु घटादिकनें बोलावीइं। थापना कहीइं ते वस्तुना आकारनिं। थयो
अनि थासें जे पर्याय तेह- कारण ते द्रव्यनिक्षेप मनिं धरवो॥६.२॥(६५) [मु.] कार्यापन्न ते भाव कहीजई, ए चउ वस्तुना धर्म रे।
वाच्य-वाचकभाविं भाव संबद्ध, नाम तणो ए मर्म रे॥ सुणो०॥६.३॥(६६) [टबार्थ कार्यपणे परिणम्यो ते भाव कहीइं। ए च्यारें निक्षेपा घटादिक वस्तुना धर्म। तिहां हेतु कहें छे। वाच्य
ते अर्थ वाचक ते शब्द वाच्य-वाचकसंबंधिं भावनें विषइं नाम संबद्ध छे॥६.३॥(६६) थापना सम परिणामपणे करी, परिणामि ताई द्रव्य रे।
एम विशेष परस्परि भावी, कीजइं निजमति भव्य रे॥ सुणो०॥६.४॥(६७) [टबार्थ थापना सरिखें परिणामिं परिणम्या माटें भाव संबद्ध छई। द्रव्य परिणामी माटें परिणामरूप भावें संबद्ध
छई। इंम माहोमाहिं विशेष जाणी आपणी मतिनो विस्तार कीजें।६.४॥(६७) [मु.] नामनइं वंछइं शबद नयवादी, वस्तु स्वरूप प्रशस्त रे।
तत्प्रत्यय हेतु माटइ धरम परि, नाम रहित नहीं वस्त रे॥सुणो०॥६.५॥(६८) [टबार्थ] सुगतमतना अनुसारी अर्थने विर्षे शब्द नथी एहवा वचन थकी नामनिं वस्तुनो धर्म ज नथी मानता।
ते प्रतिं कहइं छइं। नामनइं वांछई छई शब्दनयवादी जे वस्तुनो मुख्य धर्म छइं ते वस्तुनुं जे ज्ञान तेहना कारण माटें पोताना धर्मनी परइं। एतले अनुमान प्रमाण साध्यु इति। नाम विना कोई वस्तु छे नहीं॥६.५॥(६८)