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________________ ३४ नयामतम-२ [मु.] ॥अथ सप्तनयदृष्टांतकथनम्॥ (ढाल-४, राग-मारूणी, राय पदमरथ ए देशी) ए नय सप्त कहेइं विसुद्ध यथाक्रमि रे, प्रस्थक वसति प्रदेश। दृष्टांति करी भावो निज अनुभव करी रे, निसुणी शास्त्रनो लेश। भविजन सांभलो जी नय समुदाय आयति समुदायनो कारको रे॥ ४.१॥(३७) (आंचली) हवें नयना दृष्टांत कहइं छई। एह सात नय यथोत्तर विसुद्ध होइं। ते पाइली वसति प्रदेश ए त्रिणि दृष्टांत करीनिं भावो पोताना अनुभव साथिं शास्त्रनो लेश सांभलीनि। सर्वनय उत्तरकालनें विषं सम्यक् प्रकारिं उदयनो करनार छइं। मोक्षनो प्रापक छइं। सम्यक्त्व रूप छे एतला माटइं॥४.१॥३७) [टबार्थ [मु.] वनगम दारु छेदन छोलन कोरवइं रे, मृदुकरणिं उदभेद। एह स्थलिं नैगम व्यवहारह नय तणो रे, सुद्ध यथोत्तर भेद॥ भ०॥४.२॥(३८) [टबार्थ| प्रथम नैगम नयनो दृष्टांत देखाउँ छई। जिम कोईक पुरुष पालीने अर्थे वनमां जाइ काष्ट छेदई छोलइं, कोरइं, सुकुमाल करें यावत् पाइली नीपजइं। एक कालस्थानकनें विषइ नैगम अनि व्यवहार ए बें नय कारणिं कार्योपचार कही बोलावइं। आगल्या आगल्या भेद शुद्ध जाणवा॥४.२॥(३८) [मु.] संग्रहचित्तऽमित धान्यादिक भृतनि कहें रे, नहीं न्यूनाधिक रित्त। मानमेयोभयनि ऋजुसूत्र कहइं नहीं रे, ए किं मानोपपत्ति?॥भ०॥४.३॥(३९) [टबार्थ] हवें संग्रहनय केहाने पाली कहे छे ते बतावे छे। संग्रहनय ते पालीपणें नीपनी वस्तु ते पणि मानोपेत सघलें अंसे सरखी, अमेय वस्तुइं भरी तेहनिं पाली कहें। जे मात्रै ए नय सुद्ध छे। कारणिं कार्योपचार अनि कार्य अणकरवा वेलाइं पालीनिं न मानें। उछी अधिकी अथवा रिक्त तेहनि पाली न मानइं। हवें ऋजुसूत्र बोलें छइं। ऋजुसूत्र नय ते मान जे पाली, मेय जे धान्यादिक ए बेहुनि पाली कही बोलाव।। ऋजुसूत्र तो अर्थ क्रिया साधक पर्यायनि ज मानें इति भावः। जे माटई अनेरा एकं विना माप न थांइंइ।।४.३॥(३९) प्रस्थक भाविं परिणत आतम प्रस्थको रे, शब्दादिक मत एह। प्रस्थक ज्ञाअक प्रस्थक करतृक ज्ञानथी रे, नहीं अतिरिक्त को तेह॥भ०॥४.४॥(४०) [टबार्थ प्रस्थक भाविं परिणम्यो जे आत्मा ते ज प्रस्थक कहीइं। मबीइं(प्रमीइं) जेणे करी ते प्रमाण एहवी करण व्युत्पत्तिं करी परिच्छेद रूप जे जीवस्वभाव तेह ज प्रमाण कहीइं। ते तो जीवथी भिन्न नथी ते माटइं जीव तेह ज प्रस्थक कहीइं। जे माटें अछतें पणि प्रस्थकादिकें धान्यराशि दीठइं थकें जे धान्यकलन शक्तिवंतनिं अथवा अतिसय ज्ञानिं प्रस्थक परिच्छेद बुद्धि थाई छ। अनि नालिकेरद्वीपादिकथी आव्याने छतें पणि प्रस्थकादिकिं प्रस्थकपरिच्छे पी उपजती ते माटें
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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