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गुजराती पद्यकृति
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काष्टमय मान ते अनेकांत जाणवा अनिं प्रमाणना कारण माटें ते काष्टमयनिं प्रस्थकादिक मानरूपपणूं कहीइं तो प्रमेय जे धान्यादिक तेहनिं अप्रमाणपणुं कहीउं जोई। ते माटइं प्रस्थक ज्ञान तेह ज प्रस्थकप्रमाण जाणवू इति भावः। जे माटइं प्रस्थकनो जाणनार अनि प्रस्थकनो करनार अन्य कोई प्रस्थक छे नही॥४.४॥(४०) लोकप्रभृति गृहकोण लगिं निवसन कहें रे, नय नैगम व्यवहार। संग्रह संथारावृत्त क्षेत्रप्रदेशकिं रे, अन्य सकल उपचार॥भ०॥४.५॥(४१) हवें वसति दृष्टांत कहें छइं। लोक आदि देई यावत् गृहकोण तिहां लगि वसवू मानइं नैगम अनि व्यवहार नया संग्रह नय कहइं- संथारइं आवर्या में आकाशप्रदेश तेतलें ज वसति कहइं, बीजा गृहकोण लगें जे वसतिभेद कह्या ते उपचार जाणवां॥४.५॥(४१) जे आकाश प्रदेशइं स्वय अवगाढ छे रे, ऋजसूत्र मानि तिहां य। तेह पणि वरतमान सामायिकी जाणवी रे, प्रतिष्पि(क्ष)ण थिरता किहांय?॥ भ०॥४.६॥(४२) जे आकाशप्रदेशिं पोतें अवगाढ छइं तेह वसति संथारें आवर्यो जे आकाशप्रदेश तिहां जो वसति मानीइं गृहकोणादिकिं पणि मानी जोईई। संथारावृत्त आकाश प्रदेशिं संस्था(था)रें ज अवगाढ छइं पणि पोतें नहीं इति भावः। पूर्वोक्त वसति कही ते पणि वर्तमान समयनी जाणवी। जे माटें ऋजुसूत्रने अतीत अनागतनुं मानवू नथी। ऋजुसूत्र नय माने ते उपरि हेतु कहें छई। समय समय प्रति आत्मप्रदेशनिं स्थिरता नथी। जे माटइं प्रति समय चलोपगरण माटे तेतला ज आकाशप्रदेशने विषइं अवगाहवानो संभव छ।।४.६॥(४२) आतमभाविं आतमवसतिं न परद्रव्ये रे, इंम शब्दादिक भाव। विण संबंधिं नही अन्यनो अन्य स्थलिं रे, आधाराधेयभाव॥ भ०॥४.७॥(४३) हवें शब्दादिकनुं मत कहें छई। आत्म स्वरूपनें विषं आत्मानी वसति, पणि परद्रव्ये नहीं इम शब्दादिकनय कहें छे। तेह उपरि हेतु कहें छइं। ए नय परसंघातिं संबंधनिं न मानें। तादात्म अनि तदुत्पत्तिमांहिं एकेंनी अनुपपत्ति ते माटें संबंध विना अन्य द्रव्यनो अन्य द्रव्यनें विषइं आधाराधेयभाव न होइं। इति वसतिदृष्टांत॥४.७(४३) पंचास्तिकायनिं देश ए छतो प्रदेस छइं रे, इंम नैगम कहणहार। देश विना पंचनो हुई कहइं संग्रह नयो रे, पणविह इति व्यवहार॥ भ०॥४.८॥(४४) हवइं प्रदेश दृष्टांत कहें छ। धर्म१ अधर्म२ आकाश३ पुद्गल४ जीव५ ए पंचास्तिकाय। प्रदेश ते स्कंधसंबद्ध ज निर्विभाज्य भाग, अनि पांच अस्तिकायनो प्रदेश प्रसिद्ध ज छ। देशनो अवयव प्रदेश छे ते माटें एह तथा छठो देश जे खंधनो अवयव रूप ए छतो प्रदेश होइं तो पणि प्रदेश कहीइं इति
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१. नैगम संग्रह तथा व्यवहारना मत कहे छ। मु.