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नयामृतम्-२
उज्जुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगं दव्वावस्सयं पुहत्तं नेच्छइ त्ति। अर्थः-ऋजुसूत्रनें मतिं एक ज अनुपयोगी ते आगमथी द्रव्यावश्यक ए नय बहुत्वनें न वांछइं इति। श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण इंम कहें छे। जे ए सूत्रिं ऋजुसूत्र द्रव्यग्राहक कह्यो तो पर्यायार्थिक किम कहिइं ? इति भावः॥३.१॥(२६) एक द्रव्यावश्यक भाखी, ऋजुसूत्र सूत्रिं इति साखी।
ऋजुसूत्र विना नय तीन, सिद्धसेनमतिं द्रव्य लीन॥३.२॥(२७) [टबार्थ ऋजुसूत्र नय एक द्रव्यावश्यकनो कहेंनार एहवी अनुयोगद्वारनी साखी छइं। ऋजुसूत्र विना नैगम१
संग्रह२ विवहार३ ए त्रिण नय द्रव्यार्थिक। हवें सिद्धसेनसूरिनुं मत कहें छे। अतीत, अनागत, परकीय, भेद पथक्त्वनें परिहारि ऋजसत्र स्वकीय कार्य साधकपणा माटें स्वकीय वर्तमान वस्तने ज ग्रहें इंम सिद्धसेनसूरि कहें छई। हवें सिद्धसेनसूरिने मते पूर्वोक्त सूत्र दुखाइं ते माटें तेहनुं समाधान कहें छे। उपयोग रूप अंशनि लेइनिं वर्तमान आवश्यक पर्यायने विषई सूत्रिं द्रव्यपदनो उपचार कही बोलाव्यो ए समाधान। जे माटई पर्यायनय मुख्य द्रव्य पदार्थनो ज निषेधक छे, उपचारिक द्रव्यनो निषेधक नही इति
भावः॥३.२॥(२७) [मु.] ए सदावश्यक पर्यायई, द्रव्य पद उपचार कहायइं।
शब्द समभिरूढ एवंभूत, पर्यायार्थिकिं अनुस्यूत॥३.४॥(२८) [टबार्थ एह छतो जे आवश्यक पर्याय तेहनें विर्षे द्रव्यपदनो उपचार कहें छ। शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ए
त्रिण नय पर्यायार्थिकिं संबद्ध छई।।३.४॥(२८) [मु.] सिद्धसेन मतिं नय च्यार, पर्यायार्थिकना प्रकार।
ए उत्तर भेद छे सात, तत्त्वारथ पमुहथी ज्ञात॥३.५॥(२९) [टबार्थ] हवें सिद्धसेनसूरि मतिं पर्यायार्थिकना भेद कहें छेइं। सिद्धसेनसूरि मतिं ऋजुसूत्रादिक च्यार नय
पर्यायार्थिक जाणवा। ए बे मूल भेदना सात उत्तर भेद तत्त्वारथ प्रमुख ग्रंथ थकी जाण्या॥३.५॥(२९) [म.] एकत्विं अंतिम नय तीन, शबद नामिं अंतरलीन।
आदेशंतरि तत्त्व पंच, एहनो छे बहुल प्रपंच॥३.६॥(३०) [टबार्थ] हवें प्रकारांतरें कहें छे। अभेद विवक्षाई छेहला नय त्रिण शब्दनय नामि ज अंतर्भूत थया। जे माटई
शब्दना वाचक छई। त्यारिं वाचनांतरिं पांच नय कहीइं। छेहला त्रिण नयनि एकठा मेली एक शब्दनय ज कहीइं ते माटइं। एहनो बह विस्तार छई।।३.६।।(३०) भेदाभेद तणी विवक्ष्याइं, प्रत्येकिं नय सत सत थाइं। सप्तभंगी जो अभ्यासइं, तो समकित वासना वासइं॥३.७॥(३१)