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गुजराती पद्यकृति
हवें ईहां कोई कहेंसे जे राहुनुं सिर इत्यादिक स्थलिं कल्पनाइं षष्ठी संभव हो, पणि कथंचित् भेद विना न संभवें। जिम राहु ते धर्मी सिर ते तेहनो धर्म एतलो पणि दार्टीतिके तो गुण अनि गुण परंपराने अभेद ज छ। भेदनो कारण कोई धर्मभेद छइं नही, तो कल्पित मात्र पणि गुण विना द्रव्य छे नही, तो किम षष्ठी बोलाई छई ? ते उपरि इहां पणि भेद देखा. छई-गणपरंपरा ते कारण छई अनि केवल गुण ते कार्य छे। तथा गुणपरंपरा ते नित्य, केवल गुण ते अनित्य। इम गुणपरंपरा अनि केवल गुणनि कारणकार्य, नित्यानित्य रूप भेदनां कारण धर्म छइं इति भावः॥२.११॥ (२२) कोइ कहई दव्व पज्जय नयनिं, संमत दो वि पयत्थ रे।
पणि आदिम एकांत अभेदई, भेदिं अंतिम तत्थ रे॥ श्री.॥२.१२॥ (२३) [टबार्थ हवें ईहां मतांतर कहें छइं- कोई कहें छई जे द्रव्यनयनिं पर्यायनयनिं द्रव्यपर्याय रूप बेहु पदार्थ मान्य
छइं, पणि एतलो विशेष जे द्रव्यनय द्रव्यपर्यायनिं अभेदिं मानइं अनि पर्यायनय द्रव्यपर्यायनिं एकांत भेदें मानइं।।२.१२॥ (२३) तेह मृषा गुणगुणि दोय होवें, पर्यायमात्र अभेदई रे।
भेदई अंत्यनयई द्रव्य ग्रहते, द्रव्यार्थिक कुण वेदई रे ॥ श्री.॥२.१३॥(२४) [टबार्थ हवें तेह मत खंडें छई। एहदूं कहें जें तें जूलु। तिहां युक्ति कहें छइं। द्रव्य पर्यायनिं एकांत भेदि मानतें
इंद्र-पुरंदरादिक शब्दनी परि एकार्थता थाइं अनि पर्यायनयें द्रव्य पर्यायनिं एकांत भेदिं मानतें द्रव्यनय निरर्थक थाइं। द्रव्यनयनुं कार्य जे द्रव्य, ग्रहेंq ते तो पर्यायनये ज थयुं, तिवारिं द्रव्यनयनिं कुण जाणे?
इति भावः॥२.१३॥(२४) [मु.] एह विशेषावश्यक ग्रंथि, भाष्यो सार विचार रे।
यथासूत्र सद्दहणा धरता, लहीइं भवजल पार रे॥ श्री.॥२.१४॥(२५) [टबार्थ| तेह गाथाओ विशेषार्थीइ तिहांथी जाणवी। {ते ग्रंथ विषे तेनो सारो विचार बताव्यो छे अने सूत्र सिद्धांत उपर श्रद्धा करतां भव सायरथी तरी जइ पार पामीइ इति} ॥२.१४॥(२५)
॥इति द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकस्वरूपम्॥
॥अथैतद्भेदाः॥
(ढाल-३, राग-सामेरी चालि) [मु.] द्रव्यार्थिकना चउ भेय, श्रीजिनभद्रादि कहेय।
नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र चोथो मनि धारि॥३.१॥(२६) [टबार्थ हवइं नयना उत्तरभेद कहें छइं। द्रव्यार्थिक नयना च्यार भेद श्रीजिनभद्रादिक कहें छइं। नैगम१ संग्रह२
व्यवहार३ ऋजुसूत्र४ ए च्यार। हवइं ऋजुसूत्रनें द्रव्यार्थिकपणानी साखि देखा. छई।
१. धनुषाकार कौंसगत पाठ को.ब(१०७७८) प्रतमां देखातो नथी.