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नयामतम-२
[टबार्थ
[मु.]
जो द्रव्यथी पर्याय भिन्न, तो होइं अवयव निजमात्र रे। तथा भिन्न देशिं पणि लहीइं, इय ते कल्पितमात्र रे॥ श्री.॥२.८॥(१९) हवें उक्तार्थनें विषे उपपत्ति देखाडें छइ। प्रसिद्धि तो एहवी छे जे द्रव्यना प्रदेश ते पर्याय, जिम पटना अवयव तंतू ते द्रव्यथी भिन्न मानीइं तो ते स्वतंतु ज होइं। अमें छे तो पटसंबद्ध, पणि पटथी व्यतिरिक्त तंतु कोई छई नही। ते माटें पर्याय पारमार्थिक नहीं इति भावः। तथा वली प्रकारांतरिं उपपत्ति देखाडें छइं- जो द्रव्यथी पर्याय भिन्न होइं तो अवयव पोताना ज होइं। द्रव्यथकी पर्याय भिन्नपणुं मानीइं तो घटादिक द्रव्यथी अन्य देशनें विषं पणि रूपादिक पर्याय पामीइं, अनि ते तो होइं नहीं। ते माटइं पर्याय ते कल्पितमात्र इति द्रव्यार्थिकमतम्॥२.८॥ बीजो पज्जयविषयी मानें, लय परकाशनी वृत्ति रे।
तदभाविं द्रव्यह उपचारी, गण संतानइं नित्ति रे॥ श्री.॥२.९॥(२०) [टबार्थ हवइं पर्यायार्थिकनु स्वरूप कहें छई। बीजो पर्यायार्थिक नय ते पर्यायनो ग्राहक ते उत्पत्ति-विनासनी
मुख्यता मानइं। जेह वस्तुनी उत्पत्ति-विनास तेह ज पारमार्थिक। ईहां पणि पूर्वपरि अनुमान जाणवू। ते किम? द्रव्य अपारमार्थिक उत्पत्ति-विनास मानइं। अभावइं वंध्यापुत्रनी परिं इत्यादिक। द्रव्य स्याने विर्षे उपचारी? ते कहे छइं-तेह उत्पत्ति-विनासनें अभाविं द्रव्य परमार्थिक नहीं, किंतु औपचारिक। पूर्वापरीभूत जे पर्यायपरंपरा तेहनें विषं द्रव्यनो उपचार करीइं, ते तो नित्य छइं॥२.९।। (२०) पज्जयथी नहीं द्रव्य अनेरो, तह उवलंभ अभावई रे।।
जीवादिकनां ज्ञानादिक गुण, तैलधार परि थावइ रे॥ श्री.॥२.१०॥ (२१) [टबार्थ हवइं कह्यां अर्थनी उपपत्ति देखाउँ छई। पर्यायथी द्रव्य कोई अन्य नथी। इहां कोईनि इम आसंका
उपजें, जे जीवादिकना ज्ञानादिक गुण ए अनुभविं भेद जाणइं ज छइं, ते उपरि कहइं छइ। जीवादिक ए अनुभव ते वाक्यरूप छे, पणि परमार्थि ज्ञानादिक गुणथी जीव कोई भिन्न नथी। ते उपरि दृष्टांत कहें छइं- [जीव?]ना ज्ञानादिक गुण ए भेद जणाई छइ ते तो भिन्नपणे अनुभव ना आवे माटइं। ए तो सहुनिं अनुभवसिद्ध छे तोहे तेलनी धाराए भेदबुद्धिनुं वाक्य कहेंवाइं छे। तिम एह पणि जाणवू इति भावः। ईहां कोई कहेस्ये जे पर्यायथी द्रव्य भिन्न नथी तो जीवादिकना ज्ञानादिक गुण ईहां षष्ठी किम बोले? ते उपरि कहें छइं-जिम तैलनी धार ईहां धाराथी व्यतिरिक्त कोई तेल छे नहीं तिम ईहां पण॥२.१०॥ (२१) कल्पितमात्रिं षष्ठी संभव, राहुना सिर परि वेद रे।
कारणकार्यइं नित्यानित्यइं, संतति गुणनइं भेद रे॥ श्री.॥२.११॥ (२२) [टबार्थ] इहां कल्पनामात्रिं षष्ठीनो संभव जाणवो पणि वस्तुगति भेद नहीं। ते उपरि दृष्टांत कहें छइं। राहु
मस्तक ईहां जिम भेद विना कल्पनामात्रिं षष्ठी बोलीइं छे तिम ईहां पणि जाणवू।