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संस्कृत कृति
शीलाङ्काचार्यकृतम्। ॥सप्तनयसमाधानविवर्णनम्॥
॥श्रीशारदायै नमः॥
अथ स्याद्वादसिद्धान्तोक्तं प्रमाणलक्षणं प्रकाश्यते सङ्खपतः।
॥श्री सरस्वत्यैनमः॥ अथशब्द प्रारंभ तथा मंगलार्थे। हवे स्याद्वाद ते स्यात् अस्ति स्यान्नास्ति आदि सप्तभंगीप्रतिपादित सिद्धान्त शास्त्रमा जे प्रकारे करी उक्तं कहेलुं ते प्रमाणलक्षणं प्रमाणY जे लक्षण जे चिह्न जे ते प्रकाश्यते प्रगट करियै छैये। सक्षेपतः संक्षेपथी ते टुंकाणमां।
तद्यथा—सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्। तद् द्विधा प्रत्येक्षेतरभेदाद।
तत् ते जे छे यथा जिम छ तिम के छे सम्यक् सम्यक् ते यथार्थ एवं ज्ञान जाणवू ते रूप ततः ते ज द्विधा बे प्रकारे करी प्रत्यक्ष इंद्रीयोथी ग्रहण थाय ते इतर बीजुं ते परोक्ष इंद्रीथी न ग्रहे। भेदात् भेदथी।
अवधिमनःपर्यायादावेकदेशप्रत्यक्षौ। केवलं सकलप्रत्यक्षम्। मतिश्रुते परोक्षे।
अवधि शास्त्रोक्त सीमा- मनः मनना पर्याय अभिप्राय विचार आदौ ज्ञानप्ररव(थम?) विषे एकदेशप्रत्यक्षौ एक देशिक प्रत्यक्षो बेये। केवलं एकलु केवलज्ञान जे ते सकल सर्वदेशिक प्रत्यक्षं प्रत्यक्षा मति मतिज्ञान श्रुते श्रुतज्ञान ए बे ज्ञानो परोक्षे परोक्ष छे।
यद्वा सकलवस्तुसाधकं प्रमाणं प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं जैनज्ञाने तत्प्रमाणम्।
यत् जे माटे वा अथवा बीजे प्रकारे सकलवस्तुसाधकं सर्वपदार्थोना अभिप्रायोनुं साधन करनारुं जे ज्ञान ते प्रमाणं प्रमाणनामे ज्ञानरूप प्रमीयते यथार्थनिश्चय करिये ते परि सर्वप्रकारे करी छिद्यते द्रव्यादिनो विभागे करी ते वस्तु पदार्थ- जे तत्त्वं सारपणुं जैनज्ञाने जिनराजना ज्ञान विषे जे तत् ते ज प्रमाणं प्रमाण।
तद्विधा सविकल्पेतरभेदात्। तत् ते ज द्विधा बे प्रकारे सविकल्प तर्के करी सहित इतरभेदात् बीजं निर्विकल्प ते तर्करहित ए बे भेदथी
तेमां
सविकल्पकं मानसम्। तच्चतुर्विधं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूपम्। निर्विकल्पं मनोहरं केवलज्ञानम्। सविकल्पकं सतर्क ते मानसं मनथी थयेटु जे तत् ते ज चतुः च्यारे विधं प्रकार मति मतिज्ञान (१) श्रुत