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गुजरात कृति
(३.७)
अज्ञातकृ
॥सप्तभंगीस्वरूप॥
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सप्तभङ्गीस्वरूपं लिख्यते। यथा—
सिया अत्थि (१) सिया णत्थि (२) अत्थिणत्थि सिया पुणो (३) ।
सिया चेव अवत्तवो जुगवं विहिनिसेहओ ॥
सिया अत्थि अवत्तवो (५) चेव विहिनिसेहउ । सिया णत्थि अवत्तवो तहेव जिणभासिओ ॥ (६) सिया अत्थि सिया णत्थि अवत्तवो सिया तहा (७)। सत्तभंगी जिणुद्दिट्ठा सव्वभावेसु संमया ॥
अर्थ —सकलपदार्थं आपणइं रुपडं छतो द्रव्य - क्षेत्र - काल-भावें छ । जिम हमणां उपनो घडो पोतानें रूपें छई अनइं द्रव्यथी पृथवीरूपें छई, क्षेत्रथी राजनगरनो हुई, कालथी शीतकालनो हुई, भावथी सुवर्णे हुइं। इमं इंणी रीतें सकलपदार्थ द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावथी आपआपणें रूपें छें। स्यादस्ति लक्षण पहिलो सप्तभंगीनो भेद । (१)
अनें सकल पदार्थ पररूपें द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावथी नथी । जिम हवणानो उपनो घडो वस्त्ररूपें नथी, द्रव्यथी जलरूपें नथी, क्षेत्रथी स्थंभतीर्थनो नथी, कालथी उष्णकालनो उपनो न हुई, भावथी स्यांमरूपें नथी। इंम सकलपदार्थ पररूपें द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावें नथी । ए स्यान्नास्ति लक्षण बीजो। (२)
अनें सकल पदार्थ अनुक्रमें विचार्यं स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भावें छतापणुं अनें पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावें अछतापणुं तेणें करी अनुक्रमें सहित ज छें। जिम घडानें विषं पोतानें द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावें कही रीतें छतापणानुं भाववुं । अनुक्रमें पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावनुं अछतापणुं तेहनुं अनुक्रमें भाववुं । तेणें सहित घडो छइं। ते स्यादस्तिनास्ति लक्षण त्रीजो सप्तभंगीनो भेद। (३)
अनें सकलपदार्थ स्व द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावें छतो अनें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावें अछतो पणि एकें कालें कही न सकीइं। ते एहवो कोइ शब्द नथी जे एकें कालें छता अछता लक्षण२ गुणनें बोलें। ए स्यादवक्तव्य लक्षण चोथों सप्तभंगीनो भेद। (४)
अनें सकलपदार्थ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावें विधिकल्पनाई छता पणि समकाल विधि - निषेधकल्पनाई अवक्तव्य ज छें। जिमं सुवर्णमेरुपर्वत द्रव्यरूपें सास्वतो छई अनें पर्याय रूपें असास्वतो छइं पणि एकें कालें सास्वतो असास्वतो कही न सकीइं । ए स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव लक्षण पांचमो सप्तभंगीनो भेद । (५)
अनें सकल पदार्थ द्रव्य-क्षेत्र -काल- भावें नथी पणि स्वरूपें छतापणाथी एक कालें निषेध - विधिकल्पनाई अवक्तव्य ज छें। जिम सेलडी, गोल, खांड, साकर एहनें परस्परें यद्यपि भिन्नपणुं ज छें, माधुर्यपणानो अंतर घणो छइं पणि सेलडीपणें ऐक्य छैं। ते भिन्नपणुं एकत्व कही न सकीइं । यत उक्तम्—
इक्षुक्षीरगुडादीनां माधुर्यस्यान्तरं महत्। तथापि न तदाख्यातुं सरस्वत्यापि शक्यते॥