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________________ गुजराती गद्यकृति कारण एहि ज मृत् द्रव्य छै, एहने ज विषै ए पर्याय होणहार छै। एतलै भावशून्य ते द्रव्यनिक्षेपो जाणिवो। भाव ते वर्तमान पर्यायनें कहै छै। इति द्रव्यनिक्षेपो(३) हिवै भावनिक्षेपो कहै छै। वर्तमान पर्यायनें भाव कहीयें। जे भावे करी वर्ते छै तेहनें भावनिक्षेपो कहीयै। तत्र दृष्टांत:- जिम कोइ जीवद्रव्य पुन्य प्रकृतिनें उदै सौधर्मा सभानै विषै इंद्रपणे वर्ते हैं, बत्तीस लाख विमानवासी सुर ओलगै छै तेहनै इंद्र कहियें। इम अरिहंत पिण तेहनें कहीइं जे ज्ञान-दर्शन-चारित्रे करी विराजमान हुई चोत्तीस अतिशय, पांत्तीस वचनातिशय, अष्टमहाप्रतिहार्यै करी शोभायमान छै तेहने अरिहंत कहीयै। इम चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव तेहि ज जे विद्यमानपणें हुई पिण नाम, स्थापना, द्रव्यनै ज कहियै तेहथी गरज सरती नथी। जिम कोई एकनो नाम अमर छै पिण ते तो मरण पांमै छै, तथा नाम धनपाल छै नें पोता, पेट पिण भरी सकतो नथी इत्यादिक। नामथी परमार्थ को न पांमीयै। इम थापना पिण विचारवी। जिम पाषाणनी पूतलीना स्त्री सरीखा अंगोपांग छै पिण तेहथी कामी पुरुषनी गरज नथी सरती। इम पत्थरनी गाई, भैंसि; लाकडीना घोडा, हाथी प्रमुखथी कार्यसिद्धि नथी थाती। इम द्रव्य पिण विचारी लेवें। जिम कोइ एक बालकनी माता मरी गई छै तैहने आचलें धाव्यै दुधनी प्राप्ति नही छै। तथा कोइ पुरुष रूप पात्र राजानी स्त्री देखी व्यामोह पाम्यो ते उपरि कोई ज्ञानी गुरु पूछयांथी कह्यो ए नारी आवतें भवें ताहरी स्त्री हुस्यै। इम सांभली खुसी थयो पिण तेहनें जाई मिलाइ नही। तथा कोइ पुरुषनी स्त्री मरीनै राजानै घरै कन्या हुइ छै एकदा समै ते पुरुषनी दृष्टिं पडी महामोह पांम्यो। पूछयो कोइ गुरुने —जे ए उपरि माहरो मोह ते स्या माटें? गुरु कहै ज्ञानबलै —ए ताहरी पूठिलै भवै स्त्री हुंती। ते सांभली प्रमोद पांम्यो पिण राजलोकमध्ये जाइ मिलाइ नही। ते माटै द्रव्यथी पिण सिद्धि नही। गरज केवल भावथी सरै छ। अत्र कोइ पूछिसै—जो पहिला तीन निक्षेपाथी सिद्धि न छै तो प्रतिमा स्यानै मानो छौ? तेहनें इम कहिइं— जे भावै वीतराग ओलखिस्यै ते वीतरागनी मूरतिनै पिण ओलखिस्यै। थापना देखीनें भावै वीतराग हुंता तेहनुं स्वरूप ओलखीयै छै। जे इणै आसनमुद्राइं वीतराग बेसता। जो एहवी आसनमुद्रा तो तेहिनी ज हुंती जो रागद्वेष रहित हुता। ए परमार्थ चित्तमांहि धरीने प्रतिमा मानवी। तथोक्तम् जाकै मुख दरससों, भगतके नयनकों थिरताकी बानी चढे, चंचलता विनसी मुद्रा देखि केवली की मुद्रा याद आवै, जहां जांकै आगै इंद्र की विभूति दीसै तिनसी, जाको जस जंपत प्रकास जगमें हृदैमैं, सोइ सुद्धमति होइ हुंतीजु मलिनसी, कहित बनारिसी सुमहिमा प्रगट जाकी सोहै, जिनकी छबी है विधमान जिनसी॥ एवे द्वियो पि(?)(समयसार नाटक-५२) एतला माटै वीतरागनै ओलखै तेहनै प्रतिमाथी परमार्थ दिसा आवै। वली कोई फिरी पूछिस्यै —जो भावै ज वीतराग ओलख्यो छै तो वली थापना मानवानुं स्युं काम छै? एतो मोहदशानुं कारण छै। तेहनें इम कहीयै— जे समकिती जीवै कांइ सकल मोह कर्म जीतो नथी ते माटें समकिती जीवै
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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