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विशेषकल्पचूर्णि
बृहत्कल्पसूत्र की दो महत्त्वपूर्ण अप्रकाशित चूर्णियां प्राप्त होती है। एक, कल्पचूर्णि और दूसरी, कल्पविशेषचूर्णि। प्रथम कल्पचूर्णि का १६००० ग्रंथाग्र है तो दूसरी कल्पविशेषचूर्णि का ग्रंथा १०००० प्रमाण है। ये दोनों चूर्णियां अब तक अप्रकाशित है। इन के कर्ता का नामोल्लेख भी नही मिलता। प्रचलित परंपरा के अनुसार प्रथम चूर्णि के कर्ता जिनदास गणि महत्तर हो सकते है। भाव, भाषा, शैली और कथन पद्धति में इन दोनों चूर्णियों में इतना अधिक शब्दसाम्य है कि इनको दूसरे से अलग करना कठिन है। पूर्ववर्ती चूर्णि प्रथम और उत्तरवर्ती कल्पविशेषचूर्णि नामकरण किया जा सकता है। प्रथमचूर्णि में विशेषचूर्णिकार ने बृहत्कल्पचूर्णि के सत्तर प्रतिशत पाठों को ज्यों का त्यों लिया है। विशेषचूर्णिकारने जहाँ पूर्ववर्ती चूर्णि के पाठ संक्षिप्त है वहाँ नये पाठ देकर अपनी चूर्णि को विस्तृत किया है। इसी विशेषता को लेकर चूर्णिकार ने अपनी चूर्णि को विशेषचूर्णि के रूप में प्रसिद्ध किया हो ऐसा प्रतीत होता है।
बृहत्कल्प छह उद्देशों में विभाजित है इस के कुल सूत्र २०५ है, भाष्यगाथा ६००० प्रमाण है। मूल सूत्रकार ने जिन विषयों का कथन किया है। पूर्ववर्ती चूर्णि एवं विशेषकल्पचूर्णि उन्हीं विषयों को उत्सर्ग अपवाद विषयक चर्चा करते हुए समाविष्ट किया है। पूर्ववर्ती चूर्णिकार ने जो वर्णन किये उन्हीं के शब्दों में लिखते हुए जो संक्षिप्त और अस्पष्ट विषय है उन्हीं को विशेषकल्पचूर्णिकार ने अपने शब्दों में प्रस्तुत किया है।
विशेषकल्प चूर्णि का प्रारंभ पंचपरमेष्ठी मंगलाचरण से होता है। पूर्ववर्ती प्रथमचूर्णि में पीठिका है। यह पीठिका गाथा १ से गाथा ८०८ में पूर्ण होती है। किंतु विशेषकल्पचूर्णिकार ने पीठिका की गाथा १०८५ तक के भाग को छोडकर जहां से सूत्रारंभ होता है उसी अंश से अपनी चूर्णि का आरंभ किया है। संभवतः गाथा १-१०८५ तक की भाष्य गाथाओं का विवेचन अपने आप में पूर्ण लगा हो अतः उनका विवेचन अनावश्यक मान कर छोड़ दिया हो।
से गामंसि वा नगरंसि.... ( सूत्र - १) प्रारंभ करते हैं। सूत्र १ से ४ तक देकर प्रथम चत्तारि सुत्ताणि उच्चारेयव्वाणि। अथास्य व्याख्यामभिधास्यामः । इत्यत्र आह, अभिधास्यति भवान्। अथ कोऽस्याभिसम्बन्धः? उच्यते-वुत्तो खलु आहारो..... एस सम्बन्धो॥१०८६॥
इस प्रकार ग्रंथारम्भ करने के पश्चात् विशेषचूर्णिकार कल्पसूत्र के छहों उद्देशकों की विवेचना करते हैं। गाथा १०८७ गाथा---- तक। इस में ८१ विधि-निषेध कल्प है। ये सभी कल्प पांच समितिईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदानभण्डनिक्षेपणा तथा उच्चारप्रश्रवणखेलसिंघानजलपरिष्ठापनिका; एवं पंचमहाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ऐसे पंचमहाव्रतों से संबंधित इनका
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