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निशीथ (८) जीतकल्प (९) ओघनियुक्ति (१०) पिंडनियुक्ति। इसके अतिरिक्त भाष्य, मूलभाष्य और विशेषावश्यकभाष्य ये तीनों आवश्यक सूत्र पर लिखे गये भाष्य है। बृहत्कल्प पर दो भाष्यग्रंथ पाये जाते हैं एक लघुभाष्य और दूसरा बृहद्भाष्य। लघुभाष्य द्वितीय संघदास गणि की रचना है ऐसी मुनिश्री पुण्यविजयजी म. सा. की मान्यता है। लघुभाष्य की गाथासंख्या ६००० है। बृहद्भाष्य भी वर्तमान में विद्यमान है किंतु यह भाष्य अपूर्ण है। केवल मासकल्प तक का ही ४००० गाथाप्रमाण ग्रंथ मिलता है। इसके कर्ता का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। यह भाष्य भी अप्रकाशित है। चूर्णि___ भाष्य के बाद नियुक्ति एवं भाष्य के गूढ विषयों को समझने के लिए विस्तृतरूप से विश्लेषण करने वाले चूर्णिग्रंथो की रचना हुई। चूर्णि के कर्ता के रूप में दो आचार्यों के नाम प्रसिद्ध है। एक आचार्य श्री अगस्त्यसिंहसूरि जो दशवैकालिक चूर्णि के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरा नाम है जिनदास गणि महत्तर। इन्होंने कई आगमग्रंथो पर चूर्णि की रचना की है। अब तक उपलब्ध चूर्णियों में कही भी जिनदासगणि का उल्लेख नहीं है। बृहत्कल्पचूर्णि के कर्ता भी जिनदास गणि महत्तर होने चाहिए ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
चूर्णि व्याख्या न अतिसंक्षिप्त होती है न अतिविशद। चूर्णि व्याख्या की यह विशेषता रही है कि वे प्राकृत के साथ बीच बीच में संस्कृत में भी विवेचन करती हैं। इस प्रकार संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा के प्रयोग उनकी व्याख्यासाहित्य में होता रहा है अतः यह चूर्णि के नाम से प्रसिद्ध हुआ। व्याख्या टीका
चूर्णि के पश्चात् आगमों पर संस्कृत टीका का युग प्रारंभ होता है। प्रायः आगमों पर संस्कृत टीका लिखी गई है। भारत के इतिहास में गुप्तयुग में संस्कृत का प्रभाव अपनी चरम सीमा में था। इस काल में व्याकरण, कोष, साहित्य, दर्शन, काव्य, कथाग्रंथ जैसे महत्व पूर्ण ग्रंथो का विशद रूप से निर्माण हुआ। इस संस्कृत युग में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, आचार्य श्री अभयदेवसूरि तथा आचार्य श्री मलयगिरिसूरि आदियों ने संस्कृत में इन पर टीका की रचना कर साहित्य की अभिवृद्धि की।
संस्कृत टीकाग्रंथ को समझना सब के लिए सुलभ नहीं था अतः सुलभता से समझ सके उनके लिए जनहित की दृष्टि से लोकभाषा में सरल, सुबोध शब्दों में बालावबोध या टब्बा (शब्दार्थ) गुजराती और राजस्थानी मिश्रित भाषा में लिखा गया।
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