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छेदसूत्रों पर व्याख्याग्रंथ
जैन आगमों की प्राचीनतम पद्धति अनुयोग है। (१) चरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। छेदसूत्र चरण-आचार प्रधान होने से इनका समावेश चरणकरणानुयोग में होता है।
इसके अतिरिक्त अनुयोग के पांच नाम मिलते हैं- अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा, और वार्तिक। नियुक्ति
आगमों के गूढ रहस्यों को समझने के लिए उन पर व्याख्याग्रंथ लिखने का प्रचलन प्राचीन काल से चला आ रहा है। इसका प्रथम श्रेय प्रथम श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी को जाता है। छेद सूत्रों की सूत्रात्मक रचना कर उनके अन्तर्गत आने वाले शब्दों के गूढ रहस्यों को उनके भावों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने नियुक्ति की रचना की। कुछ नियुक्तियों की रचना द्वितीय श्रुतधर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने की। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने १० नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा की थी। (१) आवश्यक (२) दशवैकालिक (३) उत्तराध्ययन (४) आचारांग (५) सूत्रकृताङ्ग (६) दशाश्रुतस्कंध (७) बृहत्कल्प (८) व्यवहार (९) सूर्यप्रज्ञप्ति एवं (१०) ऋषिभाषित। इन दस नियुक्तियों में वर्तमान में आठ नियुक्तियाँ ही उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति आदि स्वतंत्र नियुक्तियां भी उपलब्ध है। गोविंदाचार्य ने भी नियुक्ति लिखी है ऐसा उल्लेख भी मिलता है। भाष्य
नियुक्ति अत्यन्त संक्षिप्त होने से उनके गूढार्थ को समझना कठिन था अतः उनकी विशेष स्पष्टता के लिए भाष्यसाहित्य की रचना हुई। भाष्य साहित्य के लेखक प्रथम और द्वितीय आचार्य संघदास गणि थे। पूज्य मुनिप्रवर श्रीपुण्यविजयजी म. सा. की मान्यतानुसार बृहत्कल्पभाष्य के रचयिता द्वितीय संघदास गणि थे। नियुक्ति तथा भाष्य दोनों की भाषा प्राकृत है और रचना पद्यमय एवं संक्षिप्त होने से इन्हें समझना सर्व साधारण के लिए कठिन था। अतः नियुक्ति और भाष्य का सरलीकरण आवश्यक था। इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर किंतु इसके पश्चात् आगम व्याख्याग्रंथो में भाष्य का द्वितीय स्थान है। नियुक्ति में संक्षिप्त पद्धति में केवल पारिभाषिक शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या है। अनेक स्थलों पर नियुक्ति में प्रयुक्त शब्दों को, उनके भाव एवं रहस्यों को उद्घाटित करने का कार्य भाष्य करता है। नियुक्तियों की तरह भाष्य भी दस आगमग्रंथो पर लिखे गये है। (१) आवश्यक (२) दशवैकालिक (३) उत्तराध्ययन (४) बृहत्कल्प (५) पंचकल्प (६) व्यवहार (७)
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