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________________ ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहनगरे गुणसीलचेइए बहणं समणाणं बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं बहुण सावियाणं, बहूणं देवाणं बहणं देवीणं सदेवमणुया-सुराए परिसाए मज्झगए एवमाइक्खई, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ। इसके अतिरिक्त इसी बात की पुष्टि करते हुए स्वयं पंचकल्पभाष्यकार कहते हैं तेण भगवया आयारकप्प दसाकप्प ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा [पंचकल्प भा. गा. २३] इसी से स्पष्ट है कि छेदसूत्र सामान्य आचार्य की रचना न होकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् द्वारा प्ररूपित आचारशास्त्र है। एक परंपरा यह भी है कि दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ ये चारों छेदसूत्र प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचारवस्तु से उद्धृत हुए है। दूसरी मान्यतानुसार इन चारों छेद का निर्वृहण श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामीने किया है। तथा तीसरी मान्यतानुसार निशीथ को छोडकर शेष तीन छेदसूत्रों के निर्माता आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी है। प्रचलित मान्यता जो भी हो किंतु यह सुनिश्चित है कि छेदसूत्रों के अर्थागम के उपदेशक भगवान महावीर थे तो सूत्रागम के रचयिता श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी। छेद नामकरण__प्रस्तुत सूत्र को छेदसूत्र क्यों कहा गया? इसके उत्तर में विश्लेषक यों कहते हैं कि दस प्रकार के प्रायश्चित्तों में छेद-मूल भी एक प्रायश्चित्त है तथा इसका प्रयोग बार बार हुआ है अतः इन्हें छेदसूत्र कहा गया है। दूसरी मान्यता यह भी है कि सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन है और छेदोपस्थापनीय का समय अधिक है। छेदसूत्र तत्वारित्रसम्बन्धी प्रायश्चित्त का विधान करता है अतः ये छेदसूत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। आ. श्री मलयगिरिसूरिजी के अनुसार इसमें पदविभाग समाचारी होने से इन आगमों को छेदसूत्र कहा है। अथवा छेक-उत्तम पुरुषों द्वारा प्रतिपादित अथवा संयम के रक्षार्थ उत्तम विधान जिन में है अतः ये छेदसूत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। छेदसूत्र में सभी सूत्र स्वतंत्र है। एक सूत्र का दूसरे के साथ सम्बन्ध नहीं है। तथा व्याख्या भी छेद या पदविभाग दृष्टि से की गई है इसलिए इनको छेदसूत्र कहा जा सकता है। सारांश यह है कि जिससे नियमों में बाधा आती न हो तथा संयम की निर्मलता की अभिवृद्धि होती हो ऐसे विधान जिनमें हो वे छेदसूत्र है। १. पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि मलवृ। (७४)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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