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बृहत्कल्पविशेष चूर्णि
रूपेन्द्रकुमार पगारिया
जैन परंपरा के आगमों में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। आचारप्रधान संस्कृति का सार श्रमणधर्म है। श्रमणधर्म की सिद्धि के लिए आचार की साधना अनिवार्य है। आचारधर्म के निगूढ रहस्य और सूक्ष्म क्रियाकलाप को समझने के लिए छेदसूत्रों का अध्ययन भी अनिवार्य हो जाता है। साधक के जीवन में अनेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग उपस्थित होते रहते हैं। ऐसे विषम समयों में किस प्रकार निर्णय लिया जाए इस बात का सम्यग् निर्णय एक मात्र छेदसूत्र ही करते हैं। छेदसूत्र साहित्य जैन आचार की कुंजी है, जैन विचार का अद्वितीय निधि है, जैन संस्कृति की गरिमा है और जैनसाहित्य की महिमा है। इसके अतिरिक्त छेदसूत्रों को धर्म, दर्शन, संस्कृति, इतिहास, कला, लोककथा, उपदेशकथा एवं शब्दों का अक्षय भंडार कहा जाय तो अतिशयोक्ति नही होगी। श्रमणाचार के प्रतिपादक छेदसूत्रों की संख्या छह है।
दशाश्रुतस्कंध (२) (बृहत्)कल्प, (३) व्यवहार (४) निशीथ (५) महानिशीथ (६) पंचकल्प अथवा जीतकल्प।
इन छह सूत्रों की संख्या के विषय में दो परंपरा है। एक परंपरा यह है कि दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ ये ही चार छेद सूत्र है। तो दूसरी परंपरा में पंचकल्प अथवा जीतकल्प, महानिशीथ ये दो छेदसूत्र मिलाकर छेदसूत्र छह है।
छेदसूत्रों में श्रमणश्रमणियों के आचार से सम्बद्ध प्रत्येक विषय का विस्तार से वर्णन मिलता है। छेदगत आचारसूत्र को चार विभाग में विभक्त किया है
(१) उत्सर्ग मार्ग (२) अपवाद मार्ग (३) दोषसेवन तथा (४) प्रायश्चित्त।
किसी भी विषय के सामान्य विधान को उत्सर्ग कहा जाता है। परिस्थितिविशेष तथा अवस्थाविशेष में किसी विशेष विधान को अपवाद कहा जाता है। दोष का अर्थ है- उत्सर्ग और अपवाद का भंग। खण्डितव्रत की शुद्धि के लिए उचित दण्ड ग्रहण किया जाता है उसे प्रायश्चित्त कहा गया है। ____ किसी भी नियम के पालन के लिए चार बातें आवश्यक है। सर्वप्रथम किसी सामान्य नियम की संरचना की जाती है उसे हम उत्सर्ग मार्ग कह सकते हैं। उसके पश्चात् देश, काल तथा नियम पालन
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