________________
की शक्ति तथा उसकी उपयोगिता को लक्ष में रखकर जो छूट दी जाती है उसे अपवाद मार्ग कहते हैं। उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्ग सापेक्ष है। एकान्त उत्सर्गमार्ग को अपनाना या एकान्त अपवादमार्ग का अवलम्बन लेना दोनों दोषपूर्ण है। यदि निर्बल व्यक्ति एकान्त उत्सर्गमार्ग अपनाता है तो उसमें उसके पतन की संभावना रहती है। उसी प्रकार सबल व्यक्ति अपनी सुखसाता के लिए अपवाद मार्ग अपनाता है तो वह संयम मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से एकान्त मोक्षार्थियों के लिए दोनों मार्गों को यथावसर संयम पालन हेतु अपनाना यही जिनाज्ञा है।।
इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि छेदसूत्रों का विषय खूब गहन एवं गंभीर है। यदि कोई व्यक्ति उसे समग्ररूप से समझे बिना ही दुरालोचना करने बैठ जाए तो यह उसका अधूरापन ही होगा। क्योंकि छेदसूत्रमें ऐसी गहन और रहस्य पूर्ण बातें हैं जो गीतार्थ श्रमण ही समझ सकते हैं। अतः छेदसूत्रों के पठन-पाठन के लिए योग्यता, परिपक्वता और दीर्घदृष्टि आवश्यक है।
उत्सर्गमार्ग तो सामान्यमार्ग है उनमें परिवर्तन नहीं होते किंतु अपवादमार्ग देश, काल परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। जैसे- पुस्तक आगम का हो या अन्य, उनका रखना उत्सर्गमार्ग नहीं है- यह एक तथ्य है। आचारांगसूत्र और निशीथ में पुस्तककर्म देखने मात्र का निषेध है और देखे तो उसके लिए प्रायश्चित का विधान है। क्योंकि पुस्तक लिखना, लिखाना, उनका संग्रह करना हिंसा का कारण है।'
पूर्वकाल में आगम का अध्ययन मुखपाठ ही होता था। गुरु से शिष्यो ने आगम सुने, उन्हें याद कर लिया। आगमधर शिष्यो ने भी मौखिक परंपरा से अपने शिष्यों को पढाया। लंबे समय तक यह परंपरा अविच्छिन्नरूप से चलती रही। क्रमशः युग बदला। लम्बे समय तक देश दुर्भिक्ष के चपेट में आ गया। संयमियों के लिए आहार आदि भी दुर्लभ हो गये। कई श्रुतधर समाधिमरण को प्राप्त हुए, उनके साथ आगम भी विलुप्त होते गये। स्मृतिदौर्बल्य से आगम भी विस्मृत होते देख आचार्य श्री देवर्धिक्षमाश्रमण ने अपवादमार्ग अपना कर वल्लभीपुर में अपने सांनिध्य में आगम लिपिबद्ध करवाए। तत्पश्चात् यह लेखनपरंपरा इतनी विस्तृत हो गई कि अनेक विद्वान् मुनियों ने विभिन्न विषयों में लाखों ग्रंथो का निर्माण किया, उनका लेखन हुआ और हजारों ज्ञानभंडारों की स्थापना हुई। जो लेखन पाप माना जाता था उसके स्थान पर यह उपदेश रहा कि- जो जिनागम लिखता है, लिखवाता है वह दुर्गति में नहीं जाता, मूक-बधिर नहीं होता, मूर्ख नहीं होता, अंधा नहीं होता। जो ग्रंथ लिखता, लिखवाता है वह महान पुण्य का भागी बनता है। अपना, अपने परिवार का कल्याण करता है।'
१. संघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिण्णं। संकामण पलिमंथो पमाय परिकम्मणा लिहणा।। विशेष कल्प च. प. २. अभिधान राजेन्द्र कोष पोत्थग
(७२)