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________________ लिया गया हो तो उसे अनुपस्थापित (अनारोपितमहाव्रत) शिष्य को दे देना चाहिए। यदि कोई वैसा शिष्य न हो तो उसका प्राशुक भूमि में विसर्जन कर देना चाहिए।' १०. कल्पाकल्पस्थितप्रकृतसूत्र—जो अशनादि कल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य है वह अकल्पस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य है। इसी प्रकार जो अशनादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य है वह कल्पस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य है।' ११. गणान्तरोपसम्पत्प्रकृतसूत्र—किसी भी निपँथ को किसी कारण से अन्य गण में उपसंपदा ग्रहण करनी हो तो आचार्य आदि से पूछकर ही वैसा करना चाहिए। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि के लिए ही गणान्तरोपसंपदा स्वीकार की जाती है। ज्ञानोपसंपदा, दर्शनोपसंपदा और चारित्रोपसंपदा के ग्रहण की विभिन्न विधियाँ हैं। १२. विष्वग्भवनप्रकृतसूत्र—इसमें मृत्युप्राप्त भिक्षु आदि के शरीर की परिष्ठापना का विचार किया गया है। इसके लिए निम्निलिखित द्वारों का आश्रय लिया गया है—१. प्रत्युपेक्षणाद्वार, २. दिग्द्वार, ३. णन्तकद्वार, ४. कालगतद्वार, ५. जागरण-बंधन-छेदनद्वार, ६. कुशप्रतिमाद्वार, ७. निवर्तनद्वार, ८. मात्रकद्वार, ९. शीर्षद्वार, १०. तृणादिद्वार, ११. उपकरणद्वार, १२. कायोत्सर्गद्वार, १३. प्रादक्षिण्यद्वार, १४. अभ्युत्थानद्वार, १५. व्याहरणद्वार, १६. परिष्ठापक-कायोत्सर्गद्वार, १७. क्षपणस्वाध्यायमार्गणाद्वार, १८. व्युत्सर्जनद्वार, १९. अवलोकनद्वार।" १३. अधिकरणप्रकृतसूत्र—भिक्षु का गृहस्थ के साथ अधिकरण झगड़ा हो गया हो तो उसे शांत किए बिना भिक्षाचर्या आदि करना अकल्प्य है।" १४. परिहारिकप्रकृतसूत्र—परिहारतप में स्थित भिक्षु को इंद्रमहादि उत्सवों के दिन विपुल भक्त-पानादि दिया जा सकता है, बाद में नहीं। उनकी अन्य प्रकार की सेवा तो बाद में भी की जा सकती है। १५. महानदीप्रकृतसूत्र— निग्रंथ-निग्रंथियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही आदि महानदियों को महीने में एक से अधिक बार पार नहीं करना चाहिए। ऐरावती आदि कम गहरी नदियाँ महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं। नदी पार करने के लिए संक्रम, स्थल और नोस्थल इस प्रकार तीन तरह के मार्ग बताये गये हैं।" १६. उपाश्रयविधिप्रकृतसूत्र—इन सूत्रों की व्याख्या में निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए वर्षाऋतु एवं अन्य ऋतुओं में रहने योग्य उपाश्रयों का वर्णन किया गया है। १. गा.५३१५–५३३८। २. गा.५३३९-५३६१। ३. गा.५३६२-५४९६। ४. गा.५४९७-५५६५ ५. गा.५५६६–५५९३। ६. गा.५५९४-५६१७) ७. गा.५६१८-५६६४। ८.गा.५६६५–५६८१। (६६)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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