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________________ ६. आहारविधि। अन्यधार्मिक-स्तैन्य का प्रव्रजितान्यधार्मिकस्तैन्य और गृहस्थान्यधार्मिकस्तैन्य की दृष्टि से विवेचन किया गया है। हस्ताताल का अर्थ है हस्त, खड्ग आदि से आताडन । हस्ताताल के स्वरूप के साथ ही आचार्य ने हस्तालम्ब और अर्थादान का स्वरूप भी बताया है। ' ४. प्रव्राजनादिप्रकृतसूत्र — पंडक, क्लीब और वार्तिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं। पंडक के सामान्यतया छः लक्षण हैं - १. महिलास्वभाव, २. स्वरभेद, ३. वर्णभेद, ४. महन्मेद्र - प्रलंब अङ्गादान, ५. मृदुवाक्, ६. सशब्द और अफेनक मूत्र। पंडक के दो भेद हैं—– दूषितपंडक और उपघातपंडक। दूषितपंडक के पुनः दो भेद हैं- आसिक्त और उपसिक्त। उपघातपंडक के भी दो भेद हैं—वेदोपघातपंडक और उपकरणोपघातपंडक । वेदोपघातपंडक का स्वरूपा हु आचार्य ने हेमकुमार का उदाहरण दिया है तथा उपकरणोपघातपंडक का वर्णन करते हुए एक ही जन्म में पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद का अनुभव करनेवाले कपिल का दृष्टांत दिया है। मैथुन के विचार मात्र से जिसके अंगादान में विकार उत्पन्न हो जाता है तथा बीजबिंदु गिरने लग जाते हैं वह क्लीब है। महामोहकर्म का उदय होने पर ऐसा होता है। सनिमित्तक अथवा अनिमित्तक मोहोदय से किसी के प्रति विकार उत्पन्न होने पर जब तक उसकी प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक मानसिक स्थिरता नहीं रहती। इसी को वातिक कहते हैं। अपवादरूप से पंडक आदि को दीक्षा दी जा सकती है किंतु उनके रहन-सहन आदि की विशेष व्यवस्था करनी पडती है। पंडक, क्लीब और वातिक जैसे प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं वैसे ही मुंडन, शिक्षा, उपस्थापना, सहभोजन, सहवास आदि के लिए भी अनुपयुक्त हैं।' ५. वाचनाप्रकृतसूत्र –—–— अविनीत, विकृतिप्रतिबद्ध और अव्यवशमितप्राभृत वाचना के अयोग्य हैं। इसके विपरीत विनीत, विकृतिहीन और उपशान्तकषाय वाचना के योग्य हैं। ६. संज्ञाप्यप्रकृतसूत्र— दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित उपदेश आदि के अनधिकारी हैं। अदुष्ट, अमूढ और अव्युद्ग्राहित उपदेश आदि के वास्तविक अधिकारी हैं। ' ७. ग्लानप्रकृतसूत्र—निर्ग्रथ - निर्ग्रथियाँ रुग्णावस्था में हों उस समय उनकी विविध यतनाओं के साथ सेवा करनी चाहिए। * ८. काल-क्षेत्रातिक्रांतप्रकृतसूत्र — निर्ग्रथ - निर्ग्रथियों के लिए कालातिक्रांत तथा क्षेत्रातिक्रांत अशनादि अकल्प्य है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के लिए कालातिक्रांत और क्षेत्रातिक्रांत भिन्न-भिन्न मर्यादाएँ हैं। ' ९. अनेषणीयप्रकृतसूत्र—भिक्षाचर्या में कदाचित् अनेषणीय = अशुद्ध स्निग्ध अशनादि ले १. गा. ५०५८-५१३७ । २. गा. ५१३८-५१९६ । ३. गा.५२११-५२३५ । ४. गा. ५२३६-५२६२ । ५. गा. ५२६३-५३१४| (६५)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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