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पहले से ही उस क्षेत्र से बाहर निकल जाना चाहिए। वैसा न करने से अनेक प्रकार के दोष लगते हैं। परचक्रागमन और नगररोध की स्थिति में वहाँ से न निकल सकने की दशा में भिक्षा, भक्तार्थना, वसति, स्थंडिल और शरीरविवेचन संबंधी विविध यतनाओं का सेवन करना चाहिए।'
श्रमण-श्रमणियों को चारों दिशा-विदिशाओं में सवा योजन का अवग्रह लेकर ग्राम, नगर आदि में रहना चाहिए। इस प्रसंग पर भाष्यकार ने सव्याघात और निर्व्याघात क्षेत्र, क्षेत्रिक और अक्षेत्रिक, आभाव्य और अनाभाव्य, अचल और चल क्षेत्र, वजिका, सार्थ, सेना, संवर्त आदि का स्वरूप बताया है और एतत्संबंधी अवग्रह की मर्यादा का निर्देश किया है। चतुर्थ उद्देशः ___ इस उद्देश में अनुद्घातिक आदि से संबंध रखनेवाले सोलह प्रकार के सूत्र हैं। भाष्यकार ने जिन विषयों का इनकी व्याख्या में समावेश किया है उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. अनुद्धातिकप्रकृतसूत्र—इसकी व्याख्या में यह बताया गया है कि हस्तकर्म, मैथुन और रात्रिभोजन अनुद्धातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त के योग्य हैं। हस्तकर्म का स्वरूप वर्णन करने हुए असंक्लिष्ट भावहस्तकर्म के छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय और क्षाररूप आठ भेद बताये गए है। मैथुन का स्वरूप बताते हुए देव, मनुष्य और तिर्यञ्चसंबंधी मैथुन की ओर निर्देश किया गया है कि मैथुनभाव रागादि से रहित नहीं होता अतः उसके लिए किसी प्रकार के अपवाद का विधान नहीं किया गया है। रात्रिभोजन का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने तत्संबंधी अपवाद, यतनाएँ, प्रायश्चित्त आदि का निरूपण किया है।
२. पारञ्चिकप्रकृतसूत्र दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्यकारक पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य है। पारंचिक के आशातनापारांचिक और प्रतिसेवनापारांचिक ये दो भेद हैं। आशातनापारांचिक का संबंध १. तीर्थंकर, २. प्रवचन, ३. श्रुत, ४. आचार्य, ५. गणधर और ६. महर्द्धिक से है। प्रतिसेवनापारांचिक के तीन भेद हैं—दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्यकारक। दुष्टपारांचिक दो प्रकार का है कषायदुष्ट और विषयदुष्ट। प्रमाद पाँच प्रकार का है—कषाय, विकथा, विकट, इंद्रियां और निद्रा। प्रस्तुत अधिकार स्त्यानर्द्धि निद्रा का है। अन्योन्यकारक-पारांचिक का उपाश्रय, कुल, निवेशन, लिंग, तप, काल आदि दृष्टियों से विचार किया गया है।'
३. अनवस्थाप्यप्रकृतसूत्र—अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य तीन प्रकार के अपराध हैं साधर्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य और हस्ताताल। साधर्मिकस्तैन्य का निम्न द्वारों से विचार किया गया है— १. साधर्मिकोपधिस्तैन्य, २. व्यापारणा, ३. ध्यामना, ४. प्रस्थापना, ५. शैक्ष, १. गा.४७९५-४८३९। २. गा.४८४०-४८७६। ३. गा.४८७७-४९६८। ४. गा.४९६९-५०५७।
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