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अन्तरगृहस्थानादिप्रकृतसूत्रः
साधु-साध्वियों के लिए घर के अंदर अथवा दो घरों के बीच में रहना, बैठना, सोना आदि वर्जित है। इसी प्रकार अंतरगृह में चार-पांच गाथाओं का आख्यान, पंच महाव्रतों का व्याख्यान आदि निषिद्ध है। खडे खडे एकाध श्लोक अथवा गाथा का आख्यान करने में कोई दोष नहीं है। इससे अधिक गाथाओं अथवा श्लोकों का व्याख्यान करने से अनेक प्रकार के दोषों की संभावना रहती है अतः वैसा करना निषिद्ध है। शय्या-संस्तारकप्रकृतसूत्रः
प्रथम शय्यासंस्तारकसूत्र की व्याख्या में यह बताया गया है कि शय्या और संस्तारक के परिशाटी और अपरिशाटी ये दो भेद हैं। श्रमण-श्रमणियों को मांग कर लाया हुआ शय्या संस्तारक स्वामी को सौंप कर ही अन्यत्र विहार करना चाहिए। ऐसा न करनेवाले को अनेक दोष लगते है।
द्वितीय सूत्र की व्याख्या में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों को अपने तैयार किये हुए शय्या-संस्तारक को बिखेर कर ही अन्यत्र विहार करना चाहिए।
तृतीय सूत्र के व्याख्यान में इस बात पर जोर दिया गया है की शय्यासंस्तारक की चोरी हो जाने पर साधु-साध्वीयों को उसकी खोज करनी चाहिए। खोज करने पर मिल जाने पर उसी स्वामी को वापिस सौंपना चाहिए। न मिलने पर दूसरी बार याचना करके नया शय्या-संस्तारक जुटाना चाहिए। संस्तारक आदि चुरा न लिये जाएँ इसके लिए उपाश्रय को सूना नहीं छोडना चाहिए। सावधानी रखने पर भी उपकरण आदि की चोरी हो जाने पर उन्हें ढूंढने के लिए राजपुरुषों को विधिपूर्वक समझाना चाहिए। साधर्मिकावग्रहप्रकृतसूत्रः
जिस दिन श्रमणों ने अपनी वसति और संस्तारक का त्याग किया हो उसी दिन यदि दूसरे श्रमण वहाँ आ जायँ तो भी एक दिन तक पहले के श्रमणों का ही अवग्रह बना रहता है। प्रस्तुत सूत्र-विवेचन में शैक्षविषयक अवग्रह का भी विचार किया गया है। वास्तव्य और वाताहत-आगंतुक शैक्ष का अव्याघात आदि ग्यारह द्वारों से वर्णन किया गया है। साथ ही अवस्थितावग्रह, अनवस्थितावग्रह, राजावग्रह आदि का स्वरूपवर्णन भी किया गया है।' सेनादिप्रकृतसूत्रः
परचक्र, अशिव, अवमौदर्य, बोधिकस्तेनभय आदि की संभावना होने पर निग्रंथ-निग्रंथियों को
१. गा.४५५४-४५९७। २. गा.४५९८-४६४९। ३. गा.४६५०-४७९४।
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